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________________ महावीर - "हाँ कालोदायिन् ! जीव अशुभ फलदायक कर्मों को करते हैं, यह बात सत्य है ।" कालोदायी - "भगवन् ! जीव ऐसे अशुभ विपाकदायक पापकर्म कैसे करते होंगे ?” महावीर - "कालोदायिन् ! जैसे कोई मनुष्य मनोहर रस वाले अनेक व्यंजनयुक्त विष मिश्रित पक्वान्न का भोजन करता है तब उसे वह पक्वान्न बहुत प्रिय लगता है। उसके तात्कालिक स्वाद में लुब्ध होकर वह प्रीतिपूर्वक खाता है, परन्तु परिणाम में वह अनिष्टकर होता है । भक्षक के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि पर वह बुरा प्रभाव डालता है। इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीव जब हिंसा करते हैं, असत्य बोलते हैं, चोरी करते हैं, मैथुन करते हैं, वस्तु - संग्रह करते हैं, क्रोध, मान, कपट, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति, अरति, पर-परिवाद, माया - मृषावाद, मिथ्यात्व और शल्य आदि का सेवन करते हैं तब ये कार्य जीवों को अच्छे लगते हैं, परन्तु इनसे जो दुर्विपाक पापकर्म बँधते हैं उनका फल बड़ा अनिष्ट होता है, जो बाँधने वालों को भोगना पड़ता है।" कालोदायी- “भगवन् ! जीव कल्याणफलदायक शुभ कर्मों को करते हैं ?" महावीर-‘“हाँ कालोदायिन् ! जीव शुभफलदायक कर्मों को भी करते हैं।" कालोदायी - "जीव शुभ कर्मों को कैसे करते हैं ? " महावीर - "कालोदायिन् ! जैसे कोई मनुष्य औषध - मिश्रित पक्वान्न का भोजन करता है। उस समय यद्यपि वह भोजन उसे अच्छा नहीं लगता तथापि परिणाम में वह बल, रूप आदि की वृद्धि करके हितकारक होता है। इसी प्रकार हिंसा, असत्य, चोरी आदि प्रवृत्तियों और क्रोधादि दुर्गुणों का त्याग जीवों को पहले बहुत दुष्कर मालूम होता है, परन्तु यह पापकर्मों का त्याग अन्त में सुखदायक और कल्याणकारक होता है। इस प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों को पापकर्म करना अच्छा लगता है और शुभ कर्म करना दुष्कर, तथापि परिणाम में एक दुःखकारक होता है और दूसरा सुखकारक । ८१ (२) अग्निकाय के आरम्भ के विषय में कालोदायी- "भगवन् ! दो समान पुरुष हैं। दोनों के पास समान ही उपकरण हैं। वे दोनों ही अग्निकाय के आरम्भक हैं परन्तु उनमें से एक अग्नि को जलाता है और दूसरा उसे बुझाता है। इन दो में अधिक आरम्भक और कर्मबंधक कौन ?” महावीर - "कालोदायिन् ! इन दो पुरुषों में अग्नि को जलाने वाला अधिक आरंभक है और वही अधिक कर्मबंधक है, क्योंकि जो पुरुष अग्नि को जलाता है वह पृथ्वीकाय का, अप्काय का, वायुकाय का, वनस्पतिकाय का और काय का अधिक आरंभ करता है और अग्निकाय का कम । इसके विपरीत जो पुरुष अग्नि को बुझाता है वह अग्निकाय का अधिक आरंभ करता है, परन्तु पृथ्वीकाय, अप्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन सबका अल्प आरंभ करता है। इसलिए जो अग्नि को प्रज्वलित करता है वह अधिक आरंभ करता है और उसको शान्त करने वाला अल्प ।८२ (३) अचित्त पुद्गलों के प्रकाश के विषय में कालोदायी- “भगवन् ! अचित्त पुद्गल प्रकाश अथवा उद्योत करते हैं ? यदि करते हैं तो अचित्त पुद्गल किस प्रकार प्रकाशित होते होंगे ?" महावीर - "कालोदायिन् ! अचित्त पुद्गल प्रकाश करते हैं । कोई तेजोलेश्याधारी अनगार जब तेजोलेश्या छोड़ता है उस समय उसकी तेजोलेश्या के कुछ पुद्गल दूर जाकर गिरते हैं, कुछ नजदीक । दूर-निकट गिरे हुए वे पुद्गल प्रकाश फैलाते हैं । हे कालोदायिन् ! इस प्रकार अचित्त पुद्गल प्रकाशित होते हैं।" कालोदायी ने भगवान का यह विवेचन स्वीकार किया। छट्ठ, अट्ठमादि तप करके कालोदायी ने अन्त में अनशनपूर्वक देह छोड़कर निर्वाण को प्राप्त किया | ८३ Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only २३७ www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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