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________________ जो पदार्थ पड़ता है वह अदत्त है क्योंकि जो पदार्थ दानकाल में तुम्हारा नहीं हुआ वह बाद में भी तुम्हारा नहीं हो सकता और इस प्रकार अदत्त को लेते, खाते और चखते हुए तुम असंयत, अविरत और बाल ही सिद्ध होते हो।" __ स्थविर-“आर्यो ! हम अदत्त नहीं लेते, खाते और चखते किन्तु हम दत्त लेते, खाते और चखते हैं और इस प्रकार दिया हुआ ग्रहण करते और खाते हुए हम त्रिविध-त्रिविध से संयत, विरत और पण्डित सिद्ध होते हैं।' अन्यतीर्थिक-"आर्यो ! किस प्रकार तुम दत्तग्राही सिद्ध होते हो, सो हमें समझाओ।" स्थविर–“आर्यो ! हमारे मत में दीयमान दत्त, प्रतिगृह्यमाण प्रतिगृहीत और निसृज्यमान निसृष्ट माना जाता है। गृहपति के हाथ से छूटने के अनन्तर यदि कोई उसे बीच में से उड़ा ले तो वह हमारा जाता है, गृहपति का नहीं। इस कारण हम किसी भी हेतु-युक्ति से अदत्तग्राही सिद्ध नहीं होते। परन्तु हे आर्यो ! तुम खुद ही त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत और बाल सिद्ध होते हो।" अन्यतीर्थिक-“क्यों ? हम असंयत, अविरत और बाल किसलिए कहलायेंगे?'' स्थविर-"इसलिए कि तुम अदत्त लेते हो।" अन्यतीर्थिक-“हम किस हेतु से अदत्तग्राही सिद्ध होंगे?'' स्थविर-"आर्यो ! तुम्हारे मत से दीयमान अदत्त, प्रतिगृह्यमाण अप्रतिगृहीत और निसृज्यमान अनिसृष्ट है। इस कारण तुम अदत्त लेने वाले हो। त्रिविध असंयत, अविरत और बाल हो।" अन्यतीर्थिक-“आर्यो ! तुम त्रिविध असंयत, अविरत और बाल हो।' स्थविर-"क्यों ? किस कारण से हम असंयत, अविरत और बाल कहे जायेंगे?" अन्यतीर्थिक-"आर्यो ! तुम चलते हुए पृथ्वीकाय पर आक्रमण करते हो, उस पर प्रहार करते हो, उसको घिसते हो, दूसरे से मिलाते हो, उसे इकट्ठा करते और छूते हो, उसको सताते हो और उसके जीवों का नाश करते हो। इस प्रकार पृथ्वी के जीवों पर आक्रमणादि क्रियाएँ करते हुए तुम असंयत, अविरत और बाल साबित होते हो।" स्थविर-"आर्यो ! चलते हुए हम पृथ्वी पर आक्रमण आदि नहीं करते। शरीर की चिन्ता के लिए, बीमार की सेवा के निमित्त अथवा विहारचर्या के वश जब हमें पृथ्वी पर चलना पड़ता है तब भी विवेकपूर्वक धीरे-धीरे पादक्रम से चलते हैं। इसलिए न हम पृथ्वी का आक्रमण करते हैं और न उसके जीवों का विनाश ही। परन्तु आर्यो ! तुम खुद ही इस प्रकार पृथ्वी के जीवों पर आक्रमण और उपद्रव करते हुए असंयत, अविरत और एकान्त बाल बन रहे हो।" __अन्यतीर्थिक-“आर्यो ! तुम्हारा मत तो यह है कि गम्यमान अगत, व्यतिक्रम्यमाण, अव्यतिक्रान्त और राजगृह को संप्राप्त होने का इच्छुक असंप्राप्त है।" - स्थविर-"आर्यो ! ऐसा मत हमारा नहीं है। हमारे मत में तो गम्यमान गत, व्यतिक्रम्यमाण व्यतिक्रान्त और संप्राप्यमाण संप्राप्त ही माना जाता है।" इस प्रकार स्थविर भगवन्तों ने चर्चा में अन्यतीर्थिकों को परास्त करके वहाँ ‘गति-प्रवाद' नामक अध्ययन की रचना की। अनगार कालोदायी के प्रश्न (१) अशुभ कर्मकरण विषय में ___ उस समय भगवान महावीर को वन्दन करके अनगार कालोदायी ने पूछा- “भगवन् ! जीव दुष्ट फलदायक अशुभ कर्मों को स्वयं करते हैं, यह बात सत्य है ?" | २३६ - २३६ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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