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कोडिन्न तापस ५०० शिष्यों के साथ पहली मेखला तक चढ़ पाया । दिन्न दूसरी मेखला पर अटक गया। सेवाल शिष्य तीसरी मेखला तक पहुँच गया।
अष्टापद पर एक-एक योजन की आठ मेखला थीं। सभी तापस थककर रास्ते में बैठ गये ।
तभी गौतम गणधर उधर आये। अपने लब्धि-बल से अष्टापद के अंतिम शिखर तक पहुँच गये। गौतम के तपोबल से सभी तापस प्रभावित हुए। वह जानते थे कि एक मेखला पार करनी कितनी कठिन है। यह साधक जो ऊपर पहुँचा है, सचमुच महान् है। तपोबली है। जब यह अष्टापद से नीचे आयेगा तब हम उनके शिष्य बन जायेंगे।
इन्द्रभूति गौतम अब नीचे आये। सभी तापसों ने उन्हें प्रणाम किया और प्रार्थना की- “प्रभु ! हम आपके शिष्य हैं, हमें अपने चरणों में स्वीकार कीजिये ।"
तापसों के आग्रह को स्वीकार कर गणधर गौतम ने सभी को दीक्षा प्रदान की। सभी तापस भूखे थे। इस बात को गणधर गौतम ने पहचाना । पर यहाँ कुछ उपलब्ध नहीं था। नगर कोसों दूर थे । गौतम स्वामी ने अक्षीण महानस लब्धि खीर के एक भरे हुये पात्र से पंद्रह सौ तापसों को भरपेट खीर खिलाई। अपने गुरु अद्भुत लब्धि-बल को देखकर सभी श्रमण प्रसन्न हुए । उनके शरीर में शक्ति का संचार हुआ। वह तापस से श्रमण बने मुनि प्रसन्नचित्त हो प्रभु महावीर के दर्शन को आ रहे थे।
गौतम स्वामी ने अपने धर्माचार्य निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र भगवान महावीर के गुणों व समवसरण का वर्णन करना शुरू किया। इस वर्णन को सुनकर सभी तापस भाव-विभोर हो गये। भगवान महावीर के दर्शन किये बिना उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। वह प्रभु महावीर की प्रदक्षिणा कर सीधे केवली परिषद् में पधारे। गणधर गौतम को यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ। पर साथ में उन्हें अपनी छद्मस्थ अवस्था का ज्ञान था जिसके कारण केवलज्ञान में बाधा उत्पन्न हो रही है।
प्रभु महावीर ने गणधर गौतम को बताया - "हे देवानुप्रिय ! इन्हें तो रास्ते में केवलज्ञान प्राप्त हो गया था । केवली की आशातना मत करो । भूल के लिये दण्ड प्रायश्चित्त ग्रहण करो। "
जैनधर्म की यही महानता है कि शिष्य को वह गुरु बनाता है गुरु भी संघ का भगवान बन जाता है। जैनधर्म गुण- प्रधान है, व्यक्ति-प्रधान नहीं । यहाँ गुणों की पूजा है, पद व शक्ति की नहीं ।
सैंतीसवाँ वर्ष
चातुर्मास समाप्त होने पर भगवान ने मगध की ओर विहार किया। प्रत्येक ग्राम और नगर में निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश कर देते हुए आप राजगृह पधारे और गुणशील चैत्य में समवसरण हुआ।
अन्यतीर्थिकों के आक्षेपात्मक प्रश्न
शील चैत्य में अनेक अन्यतीर्थिक बसते थे। भगवान की धर्मसभा विसर्जित होने पर अनेक अन्यतीर्थिक भगवान के आसपास बैठे हुए स्थविरों के पास आकर बोले-“आर्यो ! तुम त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत और बाल हो ।" अन्यतीर्थिकों का आक्षेप सुनकर स्थविरों ने कहा- “आर्यो ! किस कारण से हम असंयत, अविरत और बाल हो सकते हैं ?"
अन्यतीर्थिक- "आर्यो ! तुम अदत्त ग्रहण करते हो, अदत्त खाते हो, अदत्त चखते हो। इस कारण से तुम असंयत, अविरत और बाल हो ।"
स्थविर - "आर्यो ! हम किस प्रकार अदत्त लेते, खाते अथवा चखते हैं ?"
अन्यतीर्थिक- "आर्यो ! तुम्हारे मत में दीयमान अदत्त है, प्रतिगृह्यमाण अप्रतिगृहीत है और निसृज्यमान अनिसृष्ट है क्योंकि तुम्हारे मत में दीयमान पदार्थ को दातों के हाथ से छूटने के बाद तुम्हारे पात्र में पड़ने से पहले यदि कोई बीच में से ले ले तो वह पदार्थ गृहस्थ का गया हुआ माना जाता है, तुम्हारा नहीं। इससे यह सिद्ध हुआ कि तुम्हारे पात्र में
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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