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________________ उपदेश सुनते ही उसे वैराग्य हो गया। वैराग्य राजा तक ही सीमित नहीं रहा। राजा के पिता पिठर और माता यशोमति भी वैराग्य के रंग में डूब गये। अंततः निर्णय किया कि गांगलि के पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण की जाये। तीनों ने राजकुमार का राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेक के बाद तीनों साधु बने।८१ इस प्रकार गणधर गौतम, साल, महासाल मुनि तीनों नवदीक्षितों को लेकर पृष्ठ चंपा से चंपा की ओर आये। उस समय प्रभु महावीर चंपा में विराजमान थे। केवलज्ञान की प्राप्ति रास्ते में सभी जा रहे थे। साल-महासाल सोचने लगे-'मेरी बहन, बहनोई और भानजा प्रव्रजित हो गये, यह अच्छा ही हुआ। गागलि विचार कर रहे थे-'मेरे मामा साल-महासाल कितने महान् हैं जिन्हें मेरी भटकती आत्मा की चिंता है। इसी कारण लम्बा कष्ट उठाकर मुझे प्रतिबोध देने यहाँ पधारे। इन्हीं की कृपा से मुझे पहले राज्यलक्ष्मी मिली। अब मोक्षलक्ष्मी मिल रही है। इस प्रकार का चिंतन करते-करते वे क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए। शुभ ध्यान से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया।८२ __ गौतम इन्द्रभूति चम्पा आये। उन पाँचों ने भगवान की प्रदक्षिणा की। वे समवसरण में स्थापित केवली परिषद् की ओर बैठने लगे। गौतम ने उन्हें टोकते हुए कहा-"श्रमणो ! ठहरो। आपको ज्ञात नहीं कि आप किधर जा रहे हैं? पहले प्रभु महावीर को वन्दना करो।" सर्वज्ञ महावीर सब जानते-देखते थे। उन्होंने गणधर गौतम से कहा-“गौतम ! केवली की आशातना मत करो।" अब गणधर गौतम को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने प्रभु महावीर की साक्षी से सभी केवलियों से अपनी अज्ञानपूर्वक की गई भूल की क्षमा माँगी। अपनी आत्मा को शुद्ध किया। गौतम इन्द्रभूति को स्वयं केवलज्ञान न होने का दुःख था। प्रभु महावीर का स्नेह-बंधन उनके मोक्षमार्ग में रुकावट था। इस बात को प्रभु महावीर ने गणधर गौतम को कई बार समझाया था। पर यह सच्चे प्यार की अनुभूति थी। प्रभु महावीर भी जानते थे कि मोहवश यह मुझे नहीं छोड़ सकता। कई जन्मों से हम दोनों इकट्ठे इसी तरह रह रहे हैं। गौतम को अपनी भक्ति की चिंता जरूर थी पर जल्दी नहीं थी। मुक्ति और प्रभु महावीर में से उन्होंने हमेशा प्रभु महावीर को चुना। उन्हें वह मुक्ति स्वीकार नहीं थी जिसके निमित्त प्रभु महावीर स्वयं न हों। गणधर गौतम का जीवन सरलता, सहजता, समर्पण की खुली किताब है। उनके हाथों से दीक्षित हुए कितने लोग मोक्ष पधार चुके थे। पर वह अभी वहीं थे। उन्होंने प्रभु महावीर की आज्ञा को महानता दी। पंद्रह सौ तापस - इसी संदर्भ में एक कथा भगवतीसूत्र की टीका में उपलब्ध होती है जिसका वर्णन आचार्य देवेन्द्र मुनि ने 'भगवान महावीर : एक अनुशीलन' के पृष्ठ ५६४ पर किया है। उनका कथन है प्रस्तुत घटना के साथ ही एक अन्य घटना का वर्णन भी मिलता है जिसकी चर्चा अभयदेवसूरि की भगवतीसूत्र, टीका १४/७, नेमिचन्द्र द्वारा उत्तराध्ययनसूत्र की टीका (१०/१७) व कल्पसूत्र की टीकाओं में मिलता है। घटना का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है __“कोडिन्न, दिन्न और सेवाल नामक तीन तापसों के गुरु थे। प्रत्येक के ५००-५०० शिष्य थे। इस प्रकार १,५०० तापस अष्टापद पर आरोहण कर रहे थे। सभी तपस्या से दुर्बल हो चुके थे। २३४ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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