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जिस समय भगवान महावीर हस्तिनापुर पधारे थे उस समय शिव भी वहीं थे और अपने सात द्वीप-समुद्र विषयक सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहे थे। लोगों में इस नये सिद्धान्त पर टीका-टिप्पणियाँ हो रही थीं।
इन्द्रभूति गौतम भगवान की आज्ञा ले हस्तिनापुर में भिक्षाचर्या को गये तो उन्होंने भी सात द्वीप-समुद्रों की बात सुनी। गौतम ने सहस्राम्रवन में लौटकर उक्त जनप्रवाद के संबन्ध में भगवान से पूछा कि “ 'सात ही द्वीप-समुद्र हैं' यह शिवर्षि का कथन ठीक है क्या? और इस विषय में आपका क्या सिद्धान्त है ?"
भगवान ने कहा-“सात द्वीप-समुद्र संबन्धी शिवर्षि का सिद्धान्त मिथ्या है। इस विषय में मेरा कथन यह है कि जम्बूद्वीप प्रभृति असंख्य द्वीप और लवण आदि असंख्य ही समुद्र हैं। इन सबका आकार विधान तो एक-सा है पर विस्तार भिन्न-भिन्न है।"
भगवान के पास उस समय सभा जमी हुई थी। दर्शन, वन्दन और धर्मश्रवण के निमित्त आए नगर-निवासी अभी वहीं बैठे हुए थे। धर्मश्रवण कर नगर-निवासीजन अपने-अपने स्थान पर गये। सबके मुँह में सुने हुए उपदेश कीविशेषतः शिवर्षि के सिद्धान्त विषयक गौतम के प्रश्नोत्तर की चर्चा थी। वे कहते थे-“शिवर्षि का सात द्वीप-समुद्र संबन्धी सिद्धान्त ठीक नहीं है। श्रमण भगवान महावीर कहते हैं कि द्वीप-समुद्र सात ही नहीं, असंख्य हैं।"
शिवर्षि महावीर की योग्यता से अपरिचित नहीं थे। उनके ज्ञान और महत्त्व की बातें उन्होंने कई बार सुन रक्खी थीं। जब उन्होंने अपने सिद्धान्त के विषय में महावीर का अभिप्राय सुना तो वे विचार में पड़ गये। मन ही मन बोले'यह कैसी बात है ? द्वीप-समुद्र असंख्य हैं ? मैं तो सात ही देख रहा हूँ और महावीर असंख्य बताते हैं ? क्या मेरा ज्ञान अपूर्ण है ?' इस प्रकार संकल्प-विकल्प करते हुए वे शंकाशील होते गये। परिणामस्वरूप उनको जो कुछ आत्मिक साक्षात्कार हुआ था वह तिरोहित हो गया। तब उन्होंने सोचा कि 'अवश्य ही इस विषय में महावीर का कथन सत्य होगा। वे ज्ञानी तीर्थंकर हैं। उन्हें अनेक योग विभूतियाँ प्राप्त हो चुकी हैं ऐसे अर्हन्तों का दर्शन तो क्या नाम-श्रवण भी दुर्लभ होता है। अच्छा, तो अब मैं भी इन महापुरुष के पास जाऊँ और उपदेश सुनूं।'
शिव राजर्षि वहाँ से तापसाश्रम में गये और लोही, लोहकड़ाह आदि को लेकर हस्तिनापुर के मध्य में से होते हुए सहस्राम्रवन में पहुँचे। महावीर के पास जाकर त्रिप्रदक्षिणापूर्वक उनको वन्दन करके योग्य स्थान पर बैठ गये।
श्रमण भगवान ने शिव राजर्षि तथा उस महती सभा के समक्ष निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश दिया जिसे सुनकर शिवर्षि परम संतुष्ट हुए। वे उठे और हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करते हुए बोले-“भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। भगवन् ! मुझे भी हस्तालम्बन दीजिये। निर्ग्रन्थ मार्ग की दीक्षा देकर आप मुझे भी मोक्षमार्ग का पथिक बनाइये।"
भगवान ने शिव राजर्षि की प्रार्थना को स्वीकार किया। राजर्षि लोही, लोहकड़ाह आदि को लेकर ईशान दिशा की तरफ चले। थोड़ी दूर जाकर अपने उपकरणों को छोड़ दिया और पंचमुष्टिक लोच कर महावीर के पास लौटे। भगवान ने उन्हें पंच महाव्रत दिए और श्रमण धर्म की विशेष शिक्षा-दीक्षा के लिये उन्होंने स्थविरों के सुपुर्द कर दिया। निर्ग्रन्थ मार्ग में प्रवेश करने के बाद भी शिवर्षि ने कठिन तप किये और एकादशाङ्ग निर्ग्रन्थ प्रवचन का अध्ययन किया। अन्त में शिव राजर्षि सर्व कर्मों का नाश कर निर्वाण को प्राप्त हुए।६६ __ भगवान महावीर के इस समवसरण में अन्य कई धर्मार्थियों ने निर्ग्रन्थ प्रवचन की दीक्षा ली जिनमें अनगार पुट्ठिल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। यहाँ के पोटिल ने ३२ पत्नियों का त्यागकर दीक्षा ग्रहण की।६७
हस्तिनापुर से भगवान मोका नगरी की तरफ पधारे और मोका के नन्दन चैत्य में ठहरे जहाँ पर उन्होंने अग्निभूति और वायुभूति के प्रश्नों के उत्तर में देवों की विकुर्वणा-शक्ति का वर्णन करने के उपरान्त ईशानेन्द्र और चमरेन्द्र के पूर्वभवों का निरूपण किया।६८ मोका से भगवान वापस लौटे और वाणिज्यग्राम में जाकर चातुर्मास व्यतीत किया।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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