________________
के लिये भी कुछ करना चाहिए। अच्छा, तो अब मैं कल ही लोहमय कड़ाह, कडुच्छुय और ताम्रीयभाजन बनवाऊँगा और 'कुमार शिवभद्र को राज्याभिषिक्त कर लोही, लोहकड़ाह आदि उपकरण लेकर गंगातटवासी दिशा-प्रोक्षक वानप्रस्थ तापसों के समीप जाकर परिव्रज्या स्वीकार कर लूँगा । उसी समय नियम धारण करूँगा कि 'आज से जीवन पर्यन्त मैं दिशा - चक्रवाल तप करूँगा' ।
प्रातःकाल होते ही शिव ने अपने सेवकों को बुलाया और सब तैयारियाँ करवाई। युवराज शिवभद्र का राज्याभिषेक करके उसने एक बड़ी जातीय सभा बुलाई जिसमें ज्ञातिजनों के उपरान्त मित्र और स्नेही संबन्धियों को भी आमंत्रित किया । आगन्तुक मेहमानों का भोजनादि से योग्य सत्कार करने के उपरान्त शिव ने उनके सामने अपना अभिप्राय प्रकट किया और शिवभद्र तथा उन सबकी सन्मति प्राप्त कर लोही, लोहकड़ाह आदि लेकर शिव दिशा-प्रोक्षक तापसों के निकट पहुँचे और उनके मत की परिव्रज्या ले दिशा- प्रोक्षक तापस हो गए।
शिव राजर्षि अपने निश्चयानुसार प्रतिज्ञा कर छट्ट-छट्ट से दिशाचक्रवाल तप करने लगे। पहला छट्ट पूरा होने पर वल्कल पहने हुए शिव राजर्षि तपोभूमि से अपनी कुटिया में आये। किठिन - सांकायिका - बाँस का पात्र और कावड़ लेकर पूर्व दिशा का प्रोक्षण करते हुए बोले- "पूर्व दिशा में सोम महाराजा प्रस्थान - प्रस्थित शिव राजर्षि का अभिरक्षण और वहाँ के कंद, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल, बीज, हरियाली और तृणों के ग्रहण करने की आज्ञा प्रदान करो। "
उक्त प्रार्थना कर वे पूर्व दिशा में चले और वहाँ से कंद, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फलादि से किठिन - सांकायिका को भरकर तथा दर्भ, कुश, समिध्, पत्रामोट आदि लेकर अपने झोंपड़े में लौटे। किठिन सांकायिका को एक तरफ रखकर वेदिका को झाड़ा तथा लीपा । फिर दर्भगर्भित कलश लिए गंगा में गये। वहाँ स्नान-मज्जन किया और दैवत- पितरों को जलादि अर्पण करके कलश भरकर कुटिया को लौटे। दर्भ-कुश और बालुका की रचना की। अरणि कोशर से रगड़कर आग उत्पन्न की और समिध् काष्ठों से उसे जलाया। अग्नि कुंड की दाहिनी तरफ सकथा, वल्कल, स्थान, शय्या - भाण्ड, कमण्डलु, काष्ठदण्ड और आत्मा को एकत्र कर शहद, घृत और तंदुलों से अग्नि में आहुतियाँ दे चरु तैयार किया। उसमें वैश्वदैव-बलि करने के उपरान्त अतिथि-पूजन किया और फिर स्वयं भोजन किया।
इसके बाद शिव राजर्षि दूसरा षष्ठ क्षपण कर तपोभूमि में गये और पूर्ववत् ध्यान किया। पारणा के दिन वे अपने झोंपड़े में आए और दक्षिण दिशा का प्रोक्षण कर बोले- "दक्षिण दिशा में यम महाराजा प्रस्थान- प्रस्थित शिव राजर्षि का अभिरक्षण करो।" फिर वही क्रिया की जो पहले पारणा के दिन की थी।
इसी तरह तीसरा छट्ट कर पारणा के दिन पश्चिम दिशा का प्रोक्षण कर शिव ने कहा- “पश्चिम दिशा में वरुण महाराजा प्रस्थान- प्रस्थित शिव राजर्षि का अभिरक्षण करो।" शेष सब विधान पूर्ववत् किया।
चौथे छुट्ट के अन्त में उत्तर दिशा का प्रोक्षण कर शिव बोले- "उत्तर दिशा में वैश्रमण महाराजा प्रस्थान- प्रस्थित शिव राजर्षि का अभिरक्षण करो।" शेष सभी क्रियाएँ पूर्ववत् कीं ।
शिव राजर्षि ने लम्बे समय तक तप किया- आतापना की, जिसके फलस्वरूप उन्हें विभंगज्ञान हुआ और सात समुद्रों तक स्थूल सूक्ष्मरूपी पदार्थों को जानने-देखने लगे ।
इस ज्ञानदृष्टि से शिव राजर्षि के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि मुझे विशिष्ट ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुए हैं। इन ज्ञान-दर्शन से मैं जानता और देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात ही समुद्र हैं । इनके उपरान्त न द्वीप हैं, न समुद्र। ज्ञान उत्पन्न होने के उपरान्त शिव तपोभूमि से अपने झोंपड़े में गये और वल्कल पहन लोही, लोहकड़ाह, कडुच्छु, दण्ड, कमण्डल, ताम्रभाजन और किठिन- सांकायिका लिये हस्तिनापुर के तापसाश्रम में गये और भाजनादि सामग्री वहाँ रखकर हस्तिनापुर में गये। वहाँ पर उन्होंने अपने ज्ञान से जाने हुए म्गत द्वीप - समुद्रों की बात कही और बोले - "संसारभर में सात ही द्वीप और समुद्र हैं, अधिक नहीं ।"
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
२१३
www.jainelibrary.org