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एक बार मुनि मैतार्य राजगृह नगर में आये ।
मासिक उपवास का पारणा करने के लिए एक सुनार के घर गये । सुनार अपने कार्य में व्यस्त था । राजा श्रेणिक के आदेश से वह सोने के जौ बना रहा था। मुनि को आया देखकर उसने अपना कार्य ज्यों का त्यों छोड़ा। उनकी वन्दना की । भिक्षा देने के लिये वह घर के अन्दर गया ।
उधर एक मुर्गा आँगन में पीपल के वृक्ष पर बैठा था । उसने उन जौ को असल समझा। वह सारे जौ निगल गया और पुनः वृक्ष पर जा बैठा ।
सुनार भिक्षान्न देकर बाहर आया । जौ गायब थे। उसने मुनि को चोर समझा। उसने मुनि से पूछा- "महाराज ! मेरे स्वर्णमय जौ कहाँ गये ? आपके पास हों, तो वापस कर दो।"
मुनि चुप रहे। उन्होंने सोचा-'अगर मैं कहूँगा कि जौ मुर्गा निगल गया है, तो यह मुर्गे को मार देगा। अगर अपना नाम लूँ, तो बात झूठी है। बात जीव दया की थी, सो नाम लेना मुश्किल था ।
यह समय धर्म-संकट का था सो मुनिराज मौन रहे । सुनार ने उन्हें धूप में खड़ा कर उनके माथे पर गीला चमड़ा बाँध दिया। मुनि ने सब कुछ क्षमता से सहन किया । परीषहों के बीच उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया और वह मुनिराज मोक्ष पधार चुके थे।
सुनार को ध्यान आया कि मुनिराज तो राजा श्रेणिक के जामाता हैं। राजा मुझे प्राण- दण्ड देगा, अच्छा है, मैं भी प्रभु महावीर के चरणों के संयम ग्रहण कर लूँ । सुनार ने दीक्षा ली और सद्गति को प्राप्त किया ।
रोहिणेय चोर
भगवान महावीर के शिष्यों में रोहिणेय दस्यु का नाम बहुत प्रसिद्ध है। राजगृह में रोहिणेय का पूरा आतंक था। राजा श्रेणिक ने अनेक बार इसे पकड़ने की कोशिश की, पर यह कभी हाथ न लगा। कहा जाता है कि रोहिणेय वेश बदलने में माहिर था, झूठ बोलने में इतना माहिर था कि उसका झूठ सत्य लगता था ।
उसका पिता लोहखुर था, जो पहले से ही मगध के राजा का सिरदर्द था । लोहखुर जब मरने लगा तो उसने पुत्र को अंतिम शिक्षा प्रदान करते हुये कहा - "कभी महावीर के वचन मत सुनना ।"
पर कभी वह राजगृह में गुणशील चैत्य के पास जंगल में जा रहा था। उसने दोनों कानों को बंद कर लिया, ताकि प्रभु का उपदेश उसके कानों में न पड़ जाये। नंगे पाँव घूमते रोहिणेय के पाँव में तीक्ष्ण काँटा लगा। हाथ कान से उठाने पड़े। पाँव से काँटा निकाला, तो प्रभु महावीर का एक वाक्य कान में पड़ा - "देवों का जीवन भव्य होता है। देवों को कभी पसीना नहीं आता। उनकी पलकें भी मनुष्यों की तरह नहीं झपकतीं। उनके पाँव जमीन पर नहीं टिकते। इतना ही नहीं, उनके गले की मालाओं के फूल भी नहीं मुरझाते ।”
यह प्रभु वाणी उसने सुनी। मन में पिता की आज्ञा भंग करने का दुःख हुआ । इस चोर का इतना आतंक था कि लोग शहर छोड़ने लगे। अभयकुमार को रोहिणेय चोर को पकड़ने की जिम्मेवारी सौंपी गई।
रोहिणेय को अभयकुमार ने बड़े मायाजाल से ढूँढ़ा। उसे नशा पिलाकर महल में ले आया । महल को सुन्दर शृंगारित किया गया। नृत्य होने लगा। स्वर्ग का दृश्य उपस्थित किया गया।
कुछ समय बाद रोहिणेय का नशा उतरा। रोहिणेय ने अपने आसपास सजी-धजी स्त्रियों को पाया। उसने पूछा"मैं कहाँ हूँ ?”
एक सजी-धजी स्त्री ने कहा- "आप मरकर स्वर्ग में पैदा हुए हैं। अब आप स्वर्ग में हैं । हम आपकी सेवा में हैं। आज्ञा दीजिये । हम आपके लिये क्या कर सकते हैं ?"
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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