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रोहिणीय ने आसपास देखा फिर उसे प्रभु महावीर का देवों के बारे में कथन याद आ गया।
उसने अभयकुमार को बता दिया- “मैं ही रोहिणेय चोर हूँ। बाकी मैं प्रभु महावीर की कृपा से आज बच गया हूँ। आप चाहें तो मुझे सजा दे दीजिये। मैं स्वयं तो अनगार बनना चाहता हूँ।'
राजा श्रेणिक ने रोहिणेय को छोड़ दिया। रोहिणेय चोर से मुनि बन गया। प्रभु महावीर के चरणों में एक दस्यु ने अहिंसक ढंग से समर्पण ही नहीं किया बल्कि वैभारगिरि की गुफा में छिपाया सारा धन राजा श्रेणिक के कोष में जमा करवा दिया। राजा श्रेणिक ने वह धन जिनका था उन्हें लौटा दिया।
इस प्रकार प्रभु महावीर ने एक दस्यु का जीवन ही पलट दिया। पच्चीसवाँ वर्ष राजा : श्रेणिक की अपूर्व भक्ति
राजा बिम्बसार श्रेणिक का अनेक पुत्र-पुत्रियों का परिवार था। रानी चेलना का बेटा कोणिक था जिसका दूसरा नाम अजातशत्रु भी है। जब यह गर्भ में था तो इसकी माता को पति के कलेजे का माँस चबाने की इच्छा उत्पन्न हुई थी। माता ने पहले इस गर्भस्थ जीव को विनाश करने का हर संभव यत्न किया। पर रानी चेलना असफल रही। फिर उसने बालक को जन्म देकर इसे रूढ़ि पर फिकवा दिया, जहाँ मुर्गे ने इसकी छोटी उँगली को काटा। इसी कारण इसका नाम कोणिक पड़ा। राजा श्रेणिक ने बालक को रूढ़ि से उठवाकर इसका पोषण किया। __ जब यह बड़ा हुआ, तो यह महत्त्वाकांक्षी था। राजपाट की खातिर इसने अपने पिता को कैद कर लिया। अपने भाइयों की सहायता से यह राजा बन गया।
रानी चेलना की फटकार पर इसने अपने पिता को कैद से छोड़ने का फैसला किया। यह कुल्हाड़ी लेकर अपने पिता के बन्धन काटने आ रहा था कि श्रेणिक ने समझा कि 'यह मुझे कुल्हाड़ी से काटने आ रहा है।' यह सोचकर श्रेणिक ने हीरा चाटकर प्राण त्याग दिये।
पर इस सबके होते हुए यह भी अपने पिता श्रेणिक की तरह प्रभु महावीर का परम भक्त था। औपपातिकसूत्र में इसकी भक्ति का वर्णन सुन्दर ढंग से प्राप्त होता है।
प्रभु महावीर चौबीसवाँ वर्षावास राजगृह सम्पन्न कर चम्पा पधारे। यहाँ का राजा श्रेणिक भगवान महावीर के आगमन का संवाद सुनकर प्रसन्न होता था। एक बार जब इसे प्रभु महावीर के चम्पा के उपनगर में आगमन का समाचार मिला, तो सर्वप्रथम इसने अपने ५ राजसी चिन्ह दूर किये। उत्तरासन ग्रहण किया। अंजिलबद्ध सात-आठ कदम महावीर की दिशा की ओर बढ़ा। बायें पैर व दायें पैर को संकोचित किया। फिर नमुक्कण के पाठ से अभिवादन कर बोला"श्रमण भगवान महावीर जो आदिकर हैं, तीर्थंकर है यावत् सिद्धगति के अभिलाषावान हैं। मेरे धर्मोपदेशक और धर्माचार्य हैं उन्हें मेरा नमस्कार हो। यहाँ से मैं तटस्थ भगवान को वन्दन करता हूँ। भगवान वहीं से मुझे देखते हैं।"
फिर सूचना देने वाले को एक लाख आठ हजार रजत-मुद्रायें प्रदान करते हुए कहा-“जब भगवान महावीर चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में पधारें, तब मुझे पुनः सूचित करना।'
इसी सन्दर्भ में राजा कोणिक द्वारा प्रभु महावीर को शाही ढंग से वन्दन करने का अलौकिक वर्णन है। प्रभु महावीर का उपदेश सुनकर उसने निग्रंथ प्रवचन को श्रद्धा से स्वीकार किया। इसी वर्ष प्रभु महावीर के शिष्य वेहास, अभय आदि ने विपलाचल पर मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान महावीर के प्रवचन से प्रभावित होकर अनेक लोगों ने प्रभु महावीर से प्रव्रज्या ग्रहण की। मुनिधर्म अंगीकार करने वालों में पद्म, महापद्म, भद्र, सुभद्र, पद्मभद्र, पद्मसेन, पद्मगुलक, नलिनीगुल्म, आनंद और नन्दन५१ प्रमुख थे जो राजा श्रेणिक के पौत्र थे। इनके अतिरिक्त जिनपालित५२ ने श्रमणधर्म अंगीकार किया। पालित५३-जैसे बड़े व्यापारी ने श्रावकधर्म स्वीकार किया। यह चातुर्मास राजगृह में सम्पन्न हुआ।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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