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रेवती कामुक प्रवृत्ति दिखाते हुए कामभोग की याचना करने लगी और रेवती ने कहा- " - "मुझे ज्ञात है तुम्हारे सिर पर धर्म का नशा चढ़ा है, तुम मुक्ति के लालच में फँसकर यह विरक्ति का ढोंग रच रहे हो। पर तुम नहीं जानते, यदि मेरी इच्छा को तृप्त कर मेरे साथ कामभोग सेवन करते हो, तो वह मुक्ति के सुख से भी अधिक आनंद देंगे। आओ ! मेरी इच्छा पूरी कर मुझे तृप्त करो। "
महाशतक का बोध ज्ञान
रेवती बेशर्मी की सभी हदें पार कर चुकी थी । उसने अपने इसी वाक्य को तीन बार दोहराया। महाशतक को साधना से गिराने के लिए कामोद्दीपक हाव, भाव और कटाक्ष किया, पर महाशतक अडिग रहा। घोर तप की साधना से उसका शरीर कृश हो गया, अतः वह मारणान्तिक संलेखना द्वारा अशन, पान का त्याग कर दिया। शुभ अध्यवसाय से उसे अवधिज्ञान हुआ । इसके प्रभाव से वह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण दिशा तक एक हजार योजन तक और उत्तर दिशा में चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत तक की हर घटना को जानने और देखने लगा । नीचे वह रत्नप्रभा पृथ्वी के चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाला लोलुप अच्युत नाम के नरकावास तक जानने-देखने लगा ।
रेवती का पुनः आगमन
महाशतक अब अवधिज्ञानी था । उसकी पत्नी को शराब - माँस की आदत पड़ चुकी थी। एक दिन रेवती पुनः मदिरा के नशे में उसके निकट आई। उस समय वह अनशन में धर्म जागरण कर रहा था। रेवती विह्वलतापूर्वक काम - प्रार्थना करने लगी। महाशतक मौन रहा। रेवती ने यह काम हरकत दो बार की। तीसरी बार रेवती महाशतक को कामवश धिक्कारने लगी। उसके व्रतों व आचार पर तिरस्कारपूर्वक आक्षेप करने लगी। और अंत में जब अत्यंत काम - विह्वल हो गर्हित आचरण करने पर उतारू हो गई, तो महाशतक को क्रोध आ गया। उसने रेवती को अभद्र व्यवहार के लिए फटकार लगाई फिर अपने अवधिज्ञान से रेवती का अंधकारमय भविष्य देखते हुऐ कहा- "रेवती, तुम सात दिनों में अलसक (विषुचिका) रोग से पीड़ित होकर रत्नप्रभा पृथ्वी में अच्युत नरक में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाली नरक योनि में पैदा होगी। वहाँ अत्यंत उग्र कष्ट पायेगी ।"
महाशतक की आक्रोशपूर्ण बात सुनकर रेवती घबरा गई। उसका नशा काफूर हो गया। उसे लगा कि मेरे पति ने मुझे शाप दिया है। मेरा पति धर्म की आराधना करता रहता है। इसी के प्रभाव से इसने मेरे मरने की भविष्यवाणी की है।
वह रोती - पीटती अपने घर आई । ठीक सात दिन बाद अलसक रोग से पीड़ित होने के कारण मरकर वह नरक उत्पन्न हुई।
जब यह घटना घटी तब प्रभु महावीर राजगृही में ही थे । सर्वज्ञ से कुछ भी छिपा नहीं होता। उन्होंने अपने प्रथम शिष्य इन्द्रभूति गौतम को बुलाकर आज्ञा दी -"गौतम ! इस नगरी में महाशतक श्रावक रहता है, वह अवधिज्ञानी है। उसे जाकर मेरा संदेश कहो कि तुम्हे इस प्रकार कटु सत्य अपनी पत्नी रेवती के प्रति नही कहने चाहिये।" इस प्रकार का अनिष्ट, अप्रिय वचन, जिसे सुनने से किसी को पीड़ा होती हो, विचार करने पर मन में चुभता हो, नहीं बोलना चाहिये। महाशतक ने रेवती के प्रति आक्रोशपूर्ण व्यवहार कर अपने श्रावक व्रत को दूषित किया है। अतः तुम जाकर उसे ( महाशतक से ) कहो कि वह अपने इस अविचार की आत्म- आलोचना, आत्म-निन्दा करके आत्मा को विशुद्ध बनाये।"
प्रभु महावीर का संदेश लेकर गौतम राजगृह में महाशतक श्रावक के पास आये। महाशतक ने गौतम स्वामी को देखा तो बहुत प्रसन्न हुआ । विनयपूर्वक वन्दना की । महाशतक को भगवान महावीर का संदेश सुनाते हुए कहा"देवानुप्रिय ! तुमने जो इस प्रकार आक्रोशपूर्ण कटु वचन कहकर रेवती की आत्मा को संतृप्त किया, भयभीत किया वह उचित नहीं था । तुम्हारे लिए उस समय मौन रहना उचित था । तुम्हारे क्रोध के कारण तुम्हारा व्रत भंग हुआ है।" तुम अपनी भूल का प्रायश्चित्त करो, आलोचना कर आत्मा को निर्दोष बनाओ।"
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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