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________________ महाशतक ने अपने शास्ता प्रभु महावीर का संदेश सुना। उसे शिरोधार्य किया। अपने गुरु के कथनानुसार अपने क्रोध की आलोचना कर अपनी आत्मा को शुद्ध बनाया। महाशतक श्रावक ने लम्बे समय तक श्रावक के १२ व्रतों का पालन किया। अन्तिम समय ६० भक्त का अनशन पूर्ण कर वह सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ।४८ महाशतक का जीवन बहुत ही क्रान्तिकारी था। उसका घर, परिवार धर्म-कार्य में उसका सहयोगी नहीं था। जिस घर में पत्नी माँस व शराब का सेवन करती हो वहाँ महावीर के धर्म पर चलना असंभव-सा लगता है। पर वह महाशतक धर्म के मार्ग पर अकेला चलने में विश्वास करता था। इस कथा से हमें प्रेरणा मिलती है कि कटु सत्य से बचना चाहिये। इस अवसर पर बहुत से पापित्य स्थविर भगवान महावीर के समवसरण में आये और उन्होंने कुछ दूर खड़े रहकर प्रश्न किया-“भगवन् ! इस असंख्येय लोक में अनन्त रात्रि-दिन उत्पन्न हुए, होते हैं और होंगे या परीत्त?" महावीर-"आर्यो ! इस असंख्येय लोक में अनन्त और परीत्त रात्रि-दिन उत्पन्न हए. होते हैं और होंगे तथा अनन्त और परीत्त ही व्यतीत हुए, होते हैं और होंगे।" स्थविर-“भगवन् ! यह कैसे? असंख्येय लोक में अनन्त और परीत्त रात्रि-दिन कैसे उत्पन्न हुए और व्यतीत हुए?" महावीर-“आर्यो ! पुरुषादानीय पार्श्वनाथ अर्हन्त ने कहा है कि लोक शाश्वत-अनादि-अनन्त है। वह परीत्त (असंख्येय प्रदेशात्मक) और परिवृत्त (अलोकाकाश से व्याप्त) है। नीचे की तरफ विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर के भाग में विशाल है। आकार में वह अधोभाग में पलँग-जैसा, मध्य में वज्र-जैसा और ऊपरी भाग में ऊर्ध्वमृदंग-जैसा है। इस अनादि-अनन्त शाश्वत लोक में अनन्त जीवपिण्ड उत्पन्न हो-होकर विलीन होते हैं। परीत्त जीवपिण्ड भी उत्पन्न हो-होकर विलीन होते हैं, अतएव लोक उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक है। लोक का दूसरा अंश 'अजीवकाय' प्रत्यक्ष होने से लोक प्रत्यक्ष है। लोकवर्ती अजीवद्रव्य' प्रत्यक्ष देखा जाता है इसीलिये इसको 'लोक' कहते हैं-“लोक्यते इति लोकः।" भगवान महावीर के स्पष्टीकरण से पापित्य स्थविरों के मन का समाधान हो गया और उन्हें यह भी विश्वास हो गया कि भगवान महावीर 'सर्वज्ञ' और 'सर्वदर्शी' हैं। वे श्रमण भगवान को वन्दन-नमस्कार कर बोले-"भगवन् ! हम आपके पास चातुर्याम धर्म के स्थान पर पञ्चमहाव्रतात्मक सप्रतिक्रमण धर्म स्वीकार करना चाहते हैं।" स्थविरों की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए महावीर ने कहा-“देवानुप्रियो ! तुम सुखपूर्वक ऐसा कर सकते हो।' इसके बाद पापित्य स्थविरों ने श्रमण भगवान के पास पंचमहाव्रतिक धर्म स्वीकार किया और बहुत काल तक श्रामण्य पालकर अन्त में निर्वाण-पद प्राप्त किया।४९ रोह अनगार के प्रश्न __ उस समय रोह नामक अनगार भगवान से कुछ दूर बैठे तत्त्व-चिन्तन कर रहे थे। लोक-विषयक चिन्तन करते हुए उन्हें कुछ शंका उत्पन्न हुई। वे तुरन्त उठकर भगवान के पास आये और वन्दन कर प्रश्न किया-"भगवन् ! पहले 'लोक' और पीछे 'अलोक' या पहले 'अलोक' और पीछे 'लोक' ?' भगवान-“रोह ! 'लोक' और 'अलोक' दोनों पहले भी कहे जा सकते हैं और पीछे भी। ये शाश्वत-भाव हैं। इनमें पहले-पीछे का क्रम नहीं।" रोह-"भगवन् ! पहले जीव और पीछे अजीव या पहले अजीव और पीछे जीव?' भगवान-“रोह ! जीव-अजीव भी शाश्वतभाव हैं, इनमें भी पहले-पीछे का क्रम नहीं।" रोह-"भगवन् ! पहले भवसिद्धिक और पीछे अभवसिद्धिक या पहले अभवसिद्धिक और पीछे भवसिद्धिक?' | १८६ १८६ - सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only For Personal and E www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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