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गौतम स्वामी प्रभु महावीर के साथ लौटे। साथ में उँगली पकड़े अतिमुक्तक कुमार भी था। प्रभु महावीर को जैसे गौतम ने वन्दन किया उसका अनुसरण अतिमुक्तक ने भी किया। अतिमुक्तक ने प्रभु महावीर का वैराग्यमय उपदेश सुना।
उपदेश सनने के बाद अतिमक्तक ने कहा-"भंते ! मैं भी आपके समान श्रमण बनना चाहता हूँ।" प्रभु महावीर ने कहा-"भंते ! जैसे आपकी आत्मा को सुख हो वैसा करो पर शुभ कार्य में प्रमाद मत करो।"
वह अपने महलों में आया। उसने माता-पिता से साधु बनने की आज्ञा माँगी तो माता-पिता ने कहा-“बेटा ! अभी तू अल्पायु है फिर साधु-जीवन कोई बच्चों का खेल नहीं है। यह तो नंगी तलवार पर चलना है। तू जिस वातावरण में पला है उसे त्यागना तेरे लिए कठिन है फिर तू धर्म के विषय में क्या जानता है ?''
अतिमुक्तक ने कहा-“हे माता-पिता ! मैं कुछ जानता भी हूँ, कुछ नहीं भी जानता।" माता पिता ने कहा-"बेटा ! तू क्या जानता है, क्या नहीं जानता हमें भी बता ?'
अतिमुक्तक ने जो उत्तर दिया, वह धर्म के इतिहास में अभतपर्व था। फिर मात्र छह वर्ष का बालक धर्मचर्चा कर रहा था। यह अवस्था बाल्यावस्था कहलाती है पर जिसकी आत्मा जागृत हो जाये, जिस पर वैराग्य का रंग चढ़ गया हो उसे संसार अपने रंग में रंग नहीं सकता। अतिमुक्तक की आत्मा सरल और विशुद्ध थी। इसी आत्मा के स्वामी अतिमुक्तक ने कहा-“हे माता-पिता ! मैं ये जानता हूँ कि जो जन्मा है वह एक दिन मरेगा जरूर, पर मरकर कहाँ जायेगा, यह मैं नहीं जानता।"
इतना सूक्ष्म तत्त्व ज्ञान कम ही किसी के जीवन में वैराग्य से पहले मिलता है। माता-पिता समझा-बुझाकर थक गये। फिर उन्होंने कहा-“बेटा ! तुम खुशी से साधु बनो। हम कोई रुकावट नहीं बनेंगे। पर हम तुम्हें राजा के रूप में देखना चाहते हैं। तुझे एक दिन इस सिंहासन पर बैठना पड़ेगा।"
अतिमुक्तक ने माता-पिता की बात को सहर्ष स्वीकार किया। राज्याभिषेक की तैयारी की गई। एक दिन का राजा अतिमुक्तक बना। अगले दिन वह प्रभु महावीर के चरणों में साधु बन गया।
जैन परम्परा में ८ वर्ष से कम दीक्षा देने का विधान नहीं है पर प्रभु महावीर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी थे। उन्हें इस जीव के शीघ्र मोक्ष जाने का ज्ञान था। सो उन्होंने अतिमुक्तक को साधु बनाया।
भगवतीसूत्र में अतिमुक्तक मुनि के श्रमण-जीवन की एक घटना का वर्णन प्राप्त होता है।
एक बार आकाश घने बादलों से भरा पड़ा था। स्थविरों-मुनियों के साथ अतिमुक्तक श्रमण भी विहार भूमि को निकले। स्थविर इधर-उधर बिखर गये। उसी समय वर्षा शुरू हो गई। वर्षा इतनी तेज थी कि पानी ऊपर से नीचे की
ओर बह रहा था। अतिमुक्तक चाहे मुनि था पर अभी उसका बचपन नहीं गया था। उसे वर्षा में खेलने की सूझी। उसने मिट्टी के पाल को बाँधकर जल के प्रवाह को रोका और लकड़ी का पात्र उसमें छोड़ दिया। आनन्द विभोर होकर वह कहने लगे-“देखो, मेरी नैया पार हो रही है।" पात्र की नैया बह रही थी।
साथी स्थविरों (मुनियों) ने देखा कि बाल मुनि साधु मर्यादा के विपरीत कार्य कर रहा है। उन्हें काफी रोष आया। स्थविरों का रोष मुख पर आ गया। अतिमुक्तक एकदम सँभल गया। अब अपनी भूल का पश्चात्ताप करने लगा। उसे अपनी मर्यादा का भान हो चुका था। उसने पश्चात्ताप से अपनी आत्मा को पावन बना लिया था।
भगवान महावीर की सेवा में पहुँचकर स्थविरों ने सविनय प्रश्न किया-"भगान् ! आपका यह लघु शिष्य अतिमुक्तक कितने भवों में मुक्त होगा?''
भगवान ने उत्तर दिया-“मेरा यह शिष्य इसी भव में शीघ्र ही मोक्ष जाने वाला है। स्थविरो ! तुम इसकी हीलनानिन्दना और गर्हणा मत करो। जहाँ तक हो सके इसकी सेवा करो, भक्ति करो। यह निर्मल आत्मा है। इस पर क्रोध व रोष मत करो।"
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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