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________________ करना अपना सर्वप्रथम कर्त्तव्य है। अपने भिक्षु-संघ के साथ मंखलि गोशालक ने पोलासपुर की ओर प्रयाण किया। उसे पूर्ण विश्वास था कि पोलासपुर जाते ही सद्दालपुत्र फिर आजीवक संघ का सदस्य बन जायेगा। इसी आशा में उसने बड़ी जल्दी पोलासपुर का मार्ग तय किया। __पोलासपुर में आजीवक संघ की एक सभा थी, गोशालक ने उसी सभा में डेरा डाला। कुछ भिक्षुओं के साथ गोशालक सद्दालपुत्र के स्थान पर गया। वह सद्दालपुत्र जो गोशालक का नाममात्र सुनकर पुलकित हो उठता था, आज उसे अपने मकान पर आये हुए देखकर भी उसने कोई संभ्रम नहीं दिखाया। गोशालक को देखकर न वह उठा ही और न उसका गुरुभाव से सत्कार ही किया। मंखलि श्रमण को अपनी शक्ति की थाह मिल गयी। सद्दालपुत्र को पुनः आजीवक मतानुयायी बनाने की उसकी आशा विलीन-सी हो गई। उसने सोचा-'उपदेश द्वारा या प्रतिकूलता दिखाने से सद्दालपुत्र का अनुकूल होना कठिन है।' शान्ति और कोमलता धारण करते हुए गोशालक बोला-'देवानुप्रिय ! महाब्राह्मण यहाँ आ गये ?" सद्दालपुत्र-"महाब्राह्मण कौन?" गोशालक-"श्रमण भगवान महावीर।' सद्दालपुत्र-"भगवान महावीर महाब्राह्मण कैसे? श्रमण भगवान को किस कारण महाब्राह्मण कहते हो?" गोशालक-“भगवान महावीर ज्ञान-दर्शन के धारक हैं, जगत्पूजित हैं और सच्चे कर्मयोगी हैं। इसलिये वे 'महाब्राह्मण' हैं। क्या महागोप यहाँ आ गये?" सद्दालपुत्र-‘महागोप कौन?" गोशालक-'श्रमण भगवान महावीर।" सद्दालपुत्र-“देवानुप्रिय ! भगवान महावीर को महागोप कैसे कहते हो?" गोशालक-"इस संसाररूपी घोर अटवी में भटकते, टकराते और नष्ट होते संसारी-प्राणियों का धर्मदण्ड से गोपन करते हैं और मोक्षरूप बाड़े में सकुशल पहुँचाते हैं। इसी कारण भगवान ‘महागोप' हैं। क्या ‘महाधर्मकथी' यहाँ आ गये, सद्दालपुत्र ?' सद्दालपुत्र-“महाधर्मकथी कौन?' गोशालक-"श्रमण भगवान महावीर।" सद्दालपुत्र-“देवानुप्रिय ! भगवान महावीर को महाधर्मकथी किस कारण कहते हो?" गोशालक-“सद्दालपुत्र ! इस असीम संसार में भटकते, टकराते, वास्तविक मार्ग को छोड़कर उन्मार्ग पर चलते हुए अज्ञानी जीवों को धर्मत्व का उपदेश देकर धर्ममार्ग पर चलाते हैं, इस वास्ते श्रमण भगवान महावीर 'महाधर्मकथी हैं। क्या ‘महानिर्यामक' यहाँ आ गये, सद्दालपुत्र ?' सद्दालपुत्र-“महानिर्यामक कौन ?' गोशालक-"श्रमण भगवान महावीर।' सद्दालपुत्र-“देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर को महानियामक किसलिये कहते हो?" गोशालक-"इस संसाररूपी अथाह समुद्र में डूबते हुए जीवों को धर्मस्वरूप नाव में बिठलाकर अपने हाथ से उन्हें पार लगाते हैं, अतः श्रमण भगवान महावीर ‘महानिर्यामक' हैं।" सद्दालपुत्र-“देवानुप्रिय ! तुम ऐसे चतुर, ऐसे नयवादी, ऐसे उपदेशक और ऐसे विज्ञान के ज्ञाता हो तो क्या मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर के साथ विवाद कर सकते हो?" गोशालक-"नहीं, मैं ऐसा करने में समर्थ नहीं हूँ।" ___ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र १८१ १८१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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