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महावीर का आगमन सुनते ही सद्दालपुत्र हतोत्साह हो गया। उसकी दर्शनोत्कंठा शान्त हो गई। क्षणभर के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ होने के उपरान्त उसे गत रात्रि का देवादेश याद आया। उसका हृदय जागरित हुआ। वह भगवान के पास पहुंचा और विनयपूर्वक बोला-'भगवन् ! शय्या, फलकादि प्रस्तुत हैं, स्वीकार करने का अनुग्रह कीजिये।" श्रमण भगवान सद्दालपुत्र का निमंत्रण स्वीकार कर उसकी भाण्डशाला में जा उपस्थित हुए। __ भगवान को अपनी भाण्डशाला में ठहराकर तथा पीठ फलकादि प्रातिहारिक अर्पण कर सद्दालपुत्र अपने काम में लगा। भाण्डशाला में बर्तनों को इधर-उधर करता, गीलों को धूप में और सूखों को छाया में रखता हुआ वह अपने काम में लीन था, उस समय भगवान ने सद्दालपुत्र से पूछा- “सद्दालपुत्र ! यह बर्तन कैसे बना?"
सद्दालपुत्र-“भगवन् ! यह बर्तन पहले केवल मिट्टी ही होता है। उसे जल में भिगो लीद-भूसा आदि मिलाकर पिण्ड बनाते हैं और पिण्ड को चाक पर चढ़ाकर हाँडी, मटकी आदि अनेक प्रकार के बर्तन बनाए जाते हैं।"
महावीर-“ये बर्तन पुरुषार्थ और पराक्रम से बने हैं अथवा उनके बिना ही?"
सद्दालपुत्र- 'ये बर्तन नियति-बल से बनते हैं, पुरुष-पराक्रम से नहीं। सब पदार्थ नियतिवश हैं। जिसका जैसे होना नियत है वह वैसे ही होता है। उसमें पुरुष प्रयत्न कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता।"
महावीर-“सद्दालपुत्र ! तुम्हारे इन कच्चे तथा पक्के बर्तनों को यदि कोई पुरुष चुरा ले, बिखेर दे, फोड़ डाले या फेंक दे अथवा तेरी स्त्री अग्निमित्रा के पास जाए तो तुम उसे क्या दण्ड दोगे?"
सद्दालपुत्र-“भगवन् ! उस पुरुष को मैं गालियाँ दूँ, पी-, बाँधू, तर्जन-ताड़न करूँ और उसके प्राण तक ले लूँ।'
महावीर-- “सद्दालपुत्र ! तुम्हारे मत से न कोई पुरुष तुम्हारे बर्तन तोड़-फोड़ या चुरा सकता है, न ही तुम्हारी स्त्री के पास जा सकता है और न ही तुम उसे तर्जन-ताड़नादि दण्ड ही दे सकते हो, क्योंकि सब भाव नियत ही होते हैं। किसी का किया कुछ नहीं होता। यदि तुम्हारे बर्तन किसी से तोड़े-फोड़े जा सकते हैं, अग्निमित्रा के पास कोई जा सकता है और इन कामों के लिए तम किसी को दण्ड दे सकते हो तो फिर 'परुषार्थ नहीं. पराक्रम नहीं, सर्वभाव नियत है' यह तुम्हारा कथन असत्य सिद्ध होगा।"
सद्दालपुत्र समझ गया। नियतिवाद का सिद्धान्त कैसा अव्यावहारिक है, इसका उसे पता लग गया। वह श्रमण भगवान महावीर के चरणों में नतमस्तक होकर बोला- "भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन का उपदेश सुनना चाहता हूँ।'' ___ भगवान ने सद्दालपुत्र की इच्छा का अनुमोदन करते हुए निर्ग्रन्थ-प्रवचन का उपदेश दिया जिसे सुनकर सद्दालपुत्र को जिन-धर्म पर श्रद्धा और रुचि जाग्रत हुई। उसी समय उसने द्वादश व्रत सहित गृहस्थ धर्म स्वीकार किया।
घर जाकर सद्दालपुत्र ने अपने नये धर्म और नये धर्माचार्य के स्वीकार की बात अग्निमित्रा से कही और उसे भी एक बार भगवान महावीर के मुख से निर्ग्रन्थ-प्रवचन सुनने और उस पर श्रद्धा लाने की सलाह दी। अग्निमित्रा अपना रथ सजाकर भगवान के पास गई और उनका दिव्य उपदेश सुनकर उसके हृदय में यथार्थ श्रद्धा उत्पन्न हुई और उसी समय सम्यक्त्व मूल द्वादश व्रतात्मक गृहस्थ धर्म स्वीकार कर अपने स्थान गई।
सद्दालपुत्र के धर्म-परिवर्तन का समाचार आजीवक संघ के नेता मंखलिपुत्र गोशालक के कानों तक पहुंचा। आजीवक मतानुयायी गृहस्थों में सद्दालपुत्र का विशेष स्थान था। उसके धर्म-परिवर्तन करने की मंखलिपुत्र के हृदय में कभी कल्पना भी नहीं हुई थी। जब उसने सद्दालपुत्र के आजीविक-धर्म छोड़ने की बात सुनी तो मानो उस पर वज्रपात हो गया। क्रोध से उसका शरीर काँपने लगा, ओंठ फड़कने लगे और चेहरा लाल हो उठा। क्षणभर अवाक् हो ओंठों को चबाता हुआ अपने भिक्षु-संघ से बोला--"भिक्षुओ ! सुनते हो, पोलासपुर का धर्म-स्तंभ गिर गया। श्रमण महावीर के उपदेश से सद्दालपुत्र आजीवक संप्रदाय को छोड़कर निर्ग्रन्थ-प्रवचन का भक्त हो गया है। कैसा आश्चर्य है ! कितने खेद की बात है ! भिक्षुओ चलिये, पोलासपुर की ओर शीघ्र चलिये। सद्दाल को फिर से आजीवक धर्म में लाकर स्थिर
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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