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________________ चलते, फिरते तो हड्डियाँ कड़कड़ाहट की आवाज करतीं। वह भले ही शरीर से दिखाई नहीं देते थे पर उनकी आत्मा कर्मनिर्जरा के कारण उच्च स्थिति में थी। उनका मनोबल उच्च था। चाहे शरीर का बल क्षीण हो गया था, बोलने में कठिनता थी। उनका जीवन साधकों के लिए प्रकाश-स्तम्भ था। महान तपस्वी एक बार राजा श्रेणिक ने प्रभु महावीर से प्रश्न किया-“प्रभु ! आपके १४ हजार शिष्यों में सबसे उच्च तपस्वी कौन है ? कौन दुष्कर क्रिया और महानिर्जरा करने वाला है ?'' प्रभु महावीर ने उत्तर दिया-“श्रेणिक ! साधकों में सबसे श्रेष्ठ तपस्वी धन्य अनगार है जो महादृष्कर क्रिया करने वाला और महानिर्जरा करने वाला है।" इस तरह प्रभु महावीर ने प्रशंसा की। राजा श्रेणिक भी धन्य अणगार के दर्शन करने हेतु आया। उसने प्रभु महावीर की प्रशंसा भी अणगार धन्य से कही। वह इस प्रशंसा से अधिक प्रसन्न नहीं हुए, क्योंकि साधक का परम लक्षण दुःखसुख में सम रहना है। प्रशंसा और निंदा, मान-अपमान से परे वह स्थितप्रज्ञ अवस्था में लीन थे। आत्म-चिंतन में लगे थे। उनका तप कर्मनिर्जरा के लिए था न कि संसार में प्रसिद्धि के लिए। मगध सम्राट् उनके दर्शन से प्रसन्न हुआ। एक महीने का संयम पालन कर मारणान्तिक संलेखना कर धन्य अनगार सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप में पैदा हुए।४४ श्रमणोपासक कुण्डकोलिक काकंदी से विहार करके प्रभु महावीर काम्पिल्यपुर पधारे। वहाँ समवसरण लगा। राजा जितशत्रु व उसकी प्रजा धर्मोपदेश सुनने आई और वन्दन करने के पश्चात् चली गई। इसी नगर का करोड़पति कुण्डकोलिक भी धर्म उपदेश सुन रहा था। प्रभु महावीर के वैराग्यमय उपदेश का उसके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप उसने श्रावक के व्रत प्रभु महावीर से अंगीकार किये। इस श्रेष्ठी की सम्पदा का वर्णन उपासकदशांगसूत्र में मिलता है। उसके पास १४ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ थीं। दसदस हजार गायों के छह व्रज थे। इन गायों के चारे के लिए उपयुक्त भूमि भी थी। देव आगमन व चर्चा वह साधना करने लगा। सामायिक व पौषध द्वारा अपनी आत्मा को निर्मल बनाने लगा। एक बार मध्याह्न के समय वह अपनी अशोक वाटिका में आया। वहाँ पृथ्वी शिला पट्टक पर अपनी नाम की मुद्रिका और उत्तरीय वस्त्र रखकर धर्म-आराधना करने लगा। उसी समय एक देव वहाँ प्रकट हुआ और उसने प्रकट रूप में कुण्डकोलिक से कहा"मंखलीपुत्र गोशालक की धर्म प्रज्ञप्ति अत्यंत सुन्दर है। उसमें उत्थान, बल, वीर्य और पुरुषाकार का अभाव है। सभी बातें नियति पर अवलम्बित हैं अतः उसे तुम ग्रहण करो तो अच्छा है।" ___ कुण्डकोलिक-“देवराज ! आपका कथन युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि आपकी ये दिव्य ऋद्धि, द्युति आदि की जो प्राप्ति हुई है वह पुरुषार्थ या पराक्रम से मिला है या पुरुषार्थ के अभाव में ?" देव-“ये सभी मुझे पुरुषार्थ के बिना ही प्राप्त हुआ है।" कुण्डकोलिक- “आपने सारी बातें पुरुषार्थ के अभाव से मानी हैं तो जिनमें उत्थान, पराक्रम का अभाव है, वह देव क्यों नहीं बने ? तुम्हारा गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्ति के संबंध में तर्क वजनदार नहीं है। मैं तुम्हारे कथन से सहमत नहीं हूँ।" कुण्डकोलिक के उत्तर सुनकर देव निरुत्तर हो गया। देव जहाँ से आया था वहाँ चला गया। | १७८ १७८ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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