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________________ राजा चण्डप्रद्योत की इच्छा मन में मृगावती को दीक्षा की आज्ञा देने की नहीं थी पर समवसरण के प्रभाव के कारण वह इंकार न कर सका। उसने मृगावती को आज्ञा प्रदान की। मृगावती ने अपने पुत्र उदायन को चण्डप्रद्योत के संरक्षण में छोड़ दिया। अब वह मृगावती चिंतामुक्त हो गई। चण्डप्रद्योत की आठ रानियों ने भी दीक्षा स्वीकार की और मोक्ष मार्ग की साधना प्रारम्भ की। इस प्रकार मृगावती ने साध्वी बनकर स्वयं का ही कल्याण नहीं किया बल्कि समस्त राष्ट्र का कल्याण किया। नगर पर आया संकट टल गया। कुछ समय तक प्रभु महावीर आसपास के क्षेत्रों में धर्म-प्रचार करते रहे। वर्षावास का समय नजदीक था। प्रभु महावीर ने विदेह देश की ओर प्रस्थान किया। __ भगवान महावीर का यह वर्षावास वैशाली नगरी में सम्पन्न हुआ। विदेह देश में प्रभु महावीर के इस वर्षावास का जनता को पूरा लाभ मिला। प्रभु महावीर ने वर्षावास सम्पन्न करते ही मिथिला नगरी की ओर प्रस्थान किया। सुनक्षत्र मुनि की दीक्षा मिथिला से प्रभु महावीर काकंदी नगरी पधारे। वहाँ के निवासी सुनक्षत्र ने प्रभु महावीर का उपदेश सुना। उसके मन में वैराग्य जगा। उसने प्रभु महावीर के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। ग्यारह आगमों का अध्ययन किया।४२ मरकर अंतिम समय वह सर्वार्थसिद्ध विमान में देव बना। ३ जैनधर्म के इतिहास में मिथिला का अपना स्थान है। प्रभु महावीर मिथिला होते हुए काकंदी नगरी पधारे। काकंदी का सुन्दर वर्णन शास्त्र में प्राप्त होता है। वहाँ का राजा जितशत्रु था जो प्रजा में बहुत प्रिय था। वास्तव में वह गुणसम्पन्न विद्वान् राजा था। __ वहाँ सार्थवाही भद्रा रहती थी जो बड़ी व्यवहार-कुशल महिला थी। उसके पास धन-सम्पदा का अथाह अंबार था। भद्रा के एक पुत्र था धन्यकुमार जिसका पालन-पोषण उसने राजकुमारों की तरह किया था। वह भद्रा की साधना का प्रतीक था। भद्रा एक आदर्श माँ भी थी। वह अपने कर्त्तव्य को अच्छी तरह जानती थी। उसे अपने घर सुन्दर बहू लाने का शौक था। इसी कारण उसने एक साथ बत्तीस-बत्तीस पुत्र-वधुओं का मुँह देखा। ये कन्याएँ सम्पन्न व सुशील घरों की सुपुत्रियाँ थीं। धन्य व उसकी पत्नियाँ माँ भद्रा से अथाह प्यार करते थे। यही कारण था कि अब वह सब नागरिकों की भी ‘माता' बन गई थी। इसका कारण भद्रा द्वारा सभी का सम्मान व जरूरतमंदों की सहायता करना था। एक बार प्रभु महावीर इस नगरी के सहस्रवन उद्यान में पधारे। प्रभु का समवसरण लगा। राजा जितशत्रु व उसकी प्रजा प्रभु महावीर का उपदेश श्रवण करने गई। धन्यकुमार भी वहाँ पहुँचा। उपदेश सुना तो वैराग्य हो गया। संसार के भोग-विलास फीके-फीके नजर आने लगे। विराट् वैभव, पत्रियों के भोग विलास व माँ की ममता, कोई भी उसे इस त्याग-मार्ग पर बढ़ने से न रोक सके। धन्यकुमार साधु बन गया। साधु बनते ही उसने बेला-बेला व्रत की तपस्या शुरू की। पारणा भी वह नीरस आहार से करता। जिस भोजन को कोई फकीर लेना पसंद नहीं करता था, ऐसा भोजन करके वह व्रत खोलता। इसी कारण उन्हें उचित भोजन न मिला पाता। कभी भोजन मिलता तो पानी न मिल पाता, पानी मिलता तो भोजन नहीं मिल पाता, पर धन्य अनगार अपनी साधना के प्रति सतत जाग्रत रहता। उनकी शरीर के प्रति आसक्ति समाप्त हो गई थी। जैसे साँप बिना रगड़ के बिल में जाता है वैसे ही धन्य अनगार स्वादरहित भोजन खाते थे। उन्होंने इस तरह से स्वाद-विजय प्राप्त कर ली थी। उनकी साधना में फूल और शूल की भेद-रेखा समाप्त हो चुकी थी। ___उग्र तप-साधना से धन्य अणगार का शरीर सूखकर काला पड़ गया। नसे बाहर दिखाई देने लगीं। रक्त, मज्जा, माँस का शरीर पर नाम मात्र ही था। उनकी शारीरिक हालत बहुत कमजोर हो चुकी थी। जब भी वह उटने, बैठते, सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र १७७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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