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यह सुनते ही बालक ने कच्चे सूत से मेरी दोनों टाँगों पर १२ बंधन लगा दिये और बोला- "मैने पिताजी को बाँध दिया है। यह कहीं नहीं जायेंगे। मैंने देखा, बच्चे ने १२ बंधनों से मुझे बाँधा था । मैंने पुत्र की अवस्था देखी और मैंने पुत्र - स्नेह के कारण १२ वर्ष पुनः गृहस्थ में रहने का निर्णय किया । इसलिए मैंने कहा - "लोह शृंखलाओं को तोड़ना सरल है पर कच्चे सूत के धागे तोड़ना कठिन है।" उसके बाद आर्द्रक मुनि प्रभु महावीर के पास गये। विधि सहित वन्दन किया। साथ में ऐसे ५०० सिपाही जो चोर बन चुके थे उन्हें प्रभु महावीर के चरणों में दीक्षित करवाया। उनके साथ प्रतिबुद्धित तापस भी दीक्षित हुए।
बीसवाँ वर्ष
इस वर्ष का वर्षावास भी प्रभु महावीर ने राजगृही नगरी में किया । वर्षावास के समाप्त होते ही प्रभु महावीर राजगृही कोशाम्बी पहुँचे । राजगृही और कोशाम्बी के बीच काशी राष्ट्र पड़ता था । इस देश की प्रसिद्ध नगरी थी आलभिया । प्रभु महावीर जन-कल्याणार्थ यहाँ पधारे। धर्मदेशना हुई। प्रभु महावीर के उपदेशों की चर्चा घर-घर होने लगी ।
ऋषिभद्र श्रमणोपासक
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यह नगर श्रमण भगवान महावीर के श्रावकों से भरा पड़ा था । यहाँ के श्रावक तत्त्वज्ञान से भरपूर थे । यहाँ ऋषिभद्र नामक धनाढ्य श्रमणोपासक रहता था। उसकी मित्रमंडली के सदस्य भी श्रमणोपासक थे।
एक समय उसने मित्र-मंडली से कहा - "देवलोक में देवों की आयु कम से कम १० हजार वर्ष और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम है ।" ऋषिभद्र श्रमणोपासक की यह बात उनकी मंडली के सदस्यों को पसंद नहीं आई । उचित समाधान न पाकर शंकित हृदय से वह घर को चले गये थे । प्रभु महावीर धर्मदेशना देते-देते इस नगर के शंखवन उद्यान में आये । धर्मसभा में व अन्य मित्र-मंडली के श्रमणोपासकों ने ऋषिभद्र द्वारा किये गए कथन की सत्यता के बारे में पूछा।
प्रभु महावीर ने कहा - " ऋषिभद्र का कथन यथार्थ है । देवों की आयु इतनी ही है । " श्रमणोपासक वापस आये। ऋषिभद्र को नमस्कार किया फिर क्षमा याचना की ।
ऋषिभद्र भी एक बार प्रभु महावीर के साथ लम्बी धर्मचर्चाएँ करता रहा। लम्बे समय तक श्रावक के व्रतों का आचरण करते हुए मासिक अनशनपूर्वक आयुष्य पूरा किया। मरकर वह सौधर्म देवलोक में देवता बना । ४१ अ मृगावती की प्रव्रज्या
आभिया से विहार कर प्रभु महावीर कोशाम्बी पधारे। उस समय रानी मृगावती के पुत्र उदायन की आयु छोटी थी । महारानी मृगावती के रूप- लावण्य से प्रभावित होकर राजा चण्डप्रद्योत ने उसकी नगरी को बाहर से घेर लिया था। रानी ने नगर - द्वार बंद करवा दिये थे।
रानी मृगावती ने चण्डप्रद्योत को बातों में उलझाकर रखा। वह स्वयं अपने राज्य का संचालन करने लगी। भगवान महावीर का पधारना उसके लिए वरदान सिद्ध हुआ । उसे पता था कि चण्डप्रद्योत भी प्रभु महावीर का परम भक्त है, इसीलिये वह प्रभु महावीर को वन्दन करने जरूर आयेगा ।
भगवान महावीर के पधारने की सूचना पाकर राजा चण्डप्रद्योत अपनी रानियों अंगारवती सहित तथा उदायन राजमाता मृगावती सहित प्रभु महावीर के समवसरण में आए। भगवान महावीर के वैराग्ययुक्त प्रवचन से अनेक लोगों के मन में वैराग्य जगा और उन्होंने अणुव्रत व महाव्रत अंगीकार किये ।
राजमाता मृगावती ने कहा- "भगवन् ! मैं राजा चण्डप्रद्योत की आज्ञा से पुत्र को राज्य सँभालकर दीक्षा अंगीकार करना चाहती हूँ ।"
प्रभु महावीर ने कहा- "देवानुप्रिय ! जैसी तुम्हारी आत्मा को सुख हो वैसा करो। पर शुभ काम में प्रमाद मत करो।"
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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