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मुसाफिरखानों में ये नहीं जाते, इसका भी कारण है। वहाँ बहुधा अनार्य स्वभाव के मताग्रही लोग मिलते हैं, जिनमें तत्त्वजिज्ञासा का नितान्त अभाव और कदाग्रह तथा उद्दण्डता आदि की प्रचुरता होती है।" ___ गोशालक-"तब तो श्रमण ज्ञातपुत्र, अपने स्वार्थ के लिए ही प्रवृत्ति करने वाले लाभार्थी वणिक् के समान हुए न?"
आर्द्रक-"भगवान को सर्वांश में लाभार्थी वणिक् की उपमा नहीं दी जा सकती। लाभार्थी वणिक् प्राणियों की हिंसा करते हैं, परिग्रह पर ममता करते हैं, ज्ञातिसंग को न छोड़कर स्वार्थवश नये-नये प्रपंच रचते हैं। धन के लोभी और विषयभोगों में आसक्त वे आजीविकार्थ इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, ऐसे कामी और विषयगृद्ध वणिकों की उपमा भगवान को नहीं दी जा सकती। आरम्भ और परिग्रह मग्न वणिकों की प्रवृत्ति को तुम लाभकारी प्रवृत्ति कहते हो, यह भूल है। वह प्रवृत्ति उनके लाभ के लिए नहीं, अपितु दुःख के लिए है। जिस प्रवृत्ति का संसार-भ्रमण ही फल है उसको लाभदायक कैसे कह सकते हैं ?''
इसके बाद आर्द्रक मुनि को शाक्यपुत्रीय भिक्षु मिले। उनके साथ भी अनेक तर्क-वितर्क करके अपनी युक्तियों से उन्हें निरुत्तर किया। फिर ब्राह्मण सांख्य मतानुयायी संन्यासी, एकदण्डी हस्तितापसादों आदि के साथ आर्द्रक मुनि की चर्चा हुई। इसका विस्तृत वर्णन सूत्रकृतांगसूत्र में उपलब्ध है।४१ ___ हस्तितापसों को निरुत्तर कर स्व-प्रतिबोधित ५०० चोरों तथा प्रतिबोध पाये हुए हस्तितापसादि वादी और इतर परिवार के साथ आर्द्रक मुनि आगे बढ़ रहे थे कि एक वन-हाथी, जो नया ही पकड़ा हुआ था, बन्धन तोड़कर उनकी तरफ झपटा। उसे देखकर लोगों ने बड़ा हो-हल्ला मचाया कि हाथी मुनि को मारे डालता है। पर, आश्चर्य के साथ उन्होंने देखा कि विनीत शिष्य की तरह हाथी मुनि के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम कर रहा है और क्षणभर के बाद वह वन की ओर भाग रहा है।
उक्त घटना सुनकर राजा श्रेणिक आर्द्रककुमार मुनि के पास आये और हाथी के बन्धन तोड़ने का कारण पूछा। उत्तर में मुनि ने कहा-"राजन् ! मनुष्यकृत पाश तोड़कर मत्त हाथी का वन में जाना ऐसा दुष्कर नहीं जैसा कच्चे सूत का धागा तोड़ना।"
इसके बाद आर्द्रक मुनि भगवान महावीर के पास गये और भक्तिपूर्वक वन्दन किया। भगवान ने उनसे प्रतिबोधित राजपुत्रों और तापसादि को प्रव्रज्या देकर उन्हीं के सुपुर्द किया।
राजा श्रेणिक ने जब आर्द्रक के मुख से यह बात सुनी तो उन्होंने पूछा- “आर्य हाथी पकड़ने के साथ कच्चे धागों का क्या संबध है ? तुम्हारी बात हमें समझ नहीं आई।"
आर्द्रक ने उत्तर दिया-“राजन् ! मैं घर से चला। वसन्तपुर के बाहर मन्दिर में साधु-वेश में ध्यान-मुद्रा में खड़ा था। संध्या का झुरमुट अंधकार व्याप्त हो रहा था। धनश्री अपनी सखियों के साथ यहाँ खेलने को आई। धनश्री खेल खेल रही थी कि अंधकार में उसने खम्भे की जगह मुझे खम्भा समझकर पकड़ते हुए कहा-“देखो यह मेरा पति है।" इच्छा न होते हुए भी भावी की दुर्बलता ने मुझे विवाह के बंधन में धकेल दिया।
राजन् ! जब भोगावली कर्म उदय में आता है तो उसे भोगना ही पड़ता है। इस कर्म के वश मैं संसार के दलदल में फँस चुका था। मेरी पत्नी के पुत्र हुआ।
पुत्र पाँच वर्ष का हुआ तो मेरे मन में पुनः दीक्षा के विचार जगे। मैं पलँग पर आराम कर रहा था। मेरी पूर्व पत्नी चरखा कात रही थी। चंचल बेटे ने आकर पूछा-"माँ ! क्या कर रही हो?"
माँ ने पुत्र से कहा-“बेटे ! सूत कात रही हूँ। तुम्हारे पिता साधु बनने वाले हैं। अब हमें सूत कातकर ही गुजारा करना है।"
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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