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से ऊबकर सभा में बैठते हैं और उपदेश के बहाने लोगों को इकट्ठा करके अपनी आजीविका चलाते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि इनका मानस बिलकुल अव्यवस्थित है।"
आर्द्रक-“महानुभाव ! आपका यह कथन केवल ईर्ष्याजन्य है। वस्तुतः आपने भगवान के जीवन का रहस्य ही नहीं समझा। इसीलिए तो आपको उनके जीवन में विरोध दिखाई देता है। यह न समझने का ही परिणाम है। पहले एकान्तविहारी और अब साधु-मण्डल के बीच उपदेश करना, इसमें विरोध की बात ही क्या है ? जब तक वे छद्मस्थ थे तब तक एकान्तविहारी ही नहीं प्रायः मौनी भी थे, और यह वर्तन तपस्वी जीवन के अनुरूप भी था। अब वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं, उनके राग-द्वेष के बन्धन समूल नष्ट हो चुके हैं, अब उनके हृदय में आत्म-साधना के साथ-साथ जगत् के कल्याण की भावना भी है। प्राणी मात्र के कल्याण का आकांक्षी पुरुष हजारों के बीच में बैठकर उपदेश करता हुआ भी एकान्तसेवी है। वीतराग के लिए एकान्त और लोकाकुल प्रदेश में कुछ भी भेद नहीं ? निर्लेप आत्मा को सभा या समूह लिप्त नहीं कर सकते और धर्मोपदेश प्रवृत्ति तो महापुरुषों का आवश्यक कर्त्तव्य है। जो क्षमाशील तथा जितेन्द्रिय है, जिसका मन समाधि में है, वह दोषरहित भाषा में धर्मदेशना करे उसमें कुछ भी दोष नहीं। जो पाँच महाव्रतों का उपदेश करता है, जो पाँच अणुव्रतों की उपयोगिता समझाता है, जो पाँच आस्रव, पाँच संवर को हेय, उपादेय बतलाता है और जो अकर्त्तव्य कर्म से निवृत्त होने का उपदेश करता है वही बुद्धिमान है, वही कर्ममुक्त होने वाला सच्चा श्रमण है।" ___ गोशालक-"यदि ऐसा है तो सचित्त जल के पान, सचित्त बीज तथा आधाकर्मिक आहार के भोजन और स्त्रीसंग में दोष नहीं हो सकता। हमारे धर्म में तो यही कहा है कि एकान्तविहारी तपस्वी के पास पाप फटकता तक नहीं।' __ आर्द्रक-“सचित्त जल के पान, बीज तथा आधाकर्मिक आहार के भोजन और स्त्रीसंग आदि को जो जानबूझकर करता है, वह साधु नहीं हो सकता। सचित्त जलपायी, बीजभोजी और स्त्रीसेवी भी यदि श्रमण कहलायेंगे तब गृहस्थ किसे कहा जायेगा? गोशालक ! सचित्त जलपायी और सजीव बीजभोजी उदरार्थी भिक्षुओं की भिक्षावृत्ति अनुचित है। ज्ञातिसंग को न छोड़ने वाले वे रंक भिक्षु कभी मुक्त नहीं होंगे।" ___ गोशालक-“अरे आर्द्रक ! इस कथन से तो तू सभी अन्यतीर्थिकों की निन्दा कर रहा है और बीज-फलभोजी तपस्वी महात्माओं को कुयोगी और उदरार्थी भिक्षु कहता है?"
आर्द्रक-"मैं किसी की निन्दा नहीं करता किन्तु अपने दर्शन (मत) का वर्णन करता हूँ। सब दर्शन वाले अपने मतों का प्रतिपादन करते हैं और प्रसंग आने पर एक-दूसरे की निन्दा भी करते हैं। मैं तो केवल अपने मत का प्रतिपादन और पाखण्ड का खण्डन करता हूँ। जो सत्य धर्म है उसका खण्डन कभी नहीं होता और जो पाखण्ड है उसका खण्डन करना बुरा नहीं। फिर भी मैं किसी को लक्ष्य करके नहीं कह रहा हूँ।" ___ गोशालक-"आर्द्रक ! तुम्हारे धर्माचार्य की भीरुता-विषयक एक दूसरी बात कहता हूँ, इसे भी सुन। पहले ये मुसाफिरखानों और उद्यानघरों में ठहरते थे पर अब वैसा नहीं करते। ये जानते हैं कि उन स्थानों में अनेक बुद्धिमान चतुर भिक्षु एकत्र होते हैं। कहीं ऐसा न हो कि कोई शिक्षित भिक्षु कुछ प्रश्न पूछ बैठे और उसका उत्तर न दिया जा सके। इस भय से इन्होंने उक्त स्थानों में आना आजकल छोड़ दिया है।" ___ आर्द्रक-“मेरे धर्माचार्य के प्रभाव से तुम बिलकुल अनभिज्ञ मालूम होते हो। महावीर सचमुच महावीर हैं। इनमें न बाल-चापल्य है और न काम-चापल्य। ये सम्पूर्ण और स्वतन्त्र पुरुष हैं। जहाँ राजाज्ञा की भी परवाह नहीं वहाँ भिक्षुओं से डरने की बात करना केवल हास्यजनक है। मंखलि श्रमण ! महावीर आज मुसाफिरखानों में रहने वाले साधारण भिक्षु नहीं, वे जगदुद्धारक धर्म तीर्थंकर हैं। एकान्तवास में रहकर इन्होंने पहले बहुत तपस्याएँ की हैं और घोर तपस्याओं द्वारा पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करके अब ये लोक-कल्याण की भावना से ऐसे स्थानों में विचरते हैं जहाँ परोपकार का होना सम्भव हो। इसमें किसी के भय अथवा आग्रह को कुछ स्थान नहीं। कहाँ जाना और कहाँ नहीं, किससे बोलना और किससे नहीं तथा किससे प्रश्नोत्तर करना और किससे नहीं ये सब बातें इनकी इच्छा पर ही निर्भर रहती हैं।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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