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राजा श्रेणिक ने कहा- "मेरी मूर्खता के कारण यह सब कार्य हुआ।" राजा को बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। कुछ समय पश्चात् होश आने पर अभयकुमार ने बताया___ “महाराज ! मैंने पुरानी गजशाला, जो महलों के करीब पड़ती थी उसे आग लगाई है। आपने मेरी सती माता पर शक किया। सतियों पर शंका एक पुत्र कैसे कर कर सकता है ?"
श्रेणिक ने अभय को छाती से लगाया और चेलना से क्षमा माँगी। आर्द्रक मुनि की अन्य मतों के आचार्यों से धर्मचर्चा
द्वितीय अंग सूत्रकृतांग में आर्द्रककुमार का वर्णन आया है। वह प्रभु महावीर का प्रमुख भक्त था। उसकी भक्ति का कारण बना मगध का प्रधान मंत्री व राजा श्रेणिक का पुत्र अभयकुमार।
आर्द्रककुमार आर्द्रकपुर (ईरान) का राजकुमार था।३९ एक बार उसके पिता ने राजा श्रेणिक को उपहार भेजे। आर्द्रककुमार ने श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार को उपहार भेजे।
पुनः राजगृह से भी उसके बदले उपहार भेजे गये। अभयकुमार की ओर से जैनधर्म के धार्मिक उपकरण राजकुमार के लिए भेजे गये। उसे प्राप्त कर आर्द्रककुमार प्रतिबुद्ध हुआ। अब जाति-स्मरण ज्ञान उसे प्राप्त हो चुका था। उसे याद आया कि पूर्वजन्म में वह यह सब उपकरण देख चुका है।
उसने तत्काल अपने देश को छोड़कर प्रभु महावीर के चरणों में दीक्षा लेने का निर्णय किया। उसके साथ ५०० सिपाही उसकी रक्षा को थे, जो पिता ने भेजे थे। वह राजगृही आ रहा था, तब उसे भिन्न-भिन्न मतों के अनुयायी मिले जिन्होंने उससे लम्बी धर्मचर्चायें की।
इन धर्मचर्चाओं से उस समय के दार्शनिक परम्पराओं पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। अगली पंक्तियों में हम इसी प्रकरण को दे रहे हैं। इससे आर्द्रककुमार के ज्ञान का भी पता चलता है। आर्द्रककुमार विदेशी था। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने उसे ईराक सम्राट् कुरण का पुत्र बताया है।४०
लगता है आर्द्रककुमार के माध्यम से जिनधर्म अरब भूखण्ड में प्रभु महावीर के समय फैल चुका था। आर्द्रक-गोशालक संवाद
उस समय भगवान के शिष्य आईक मुनि भगवान को वन्दन करने के लिए गुणशील में जा रहे थे। रास्ते में उन्हें गोशालक मिला। आर्द्रक को वहीं मार्ग में रोककर वह बोला “आर्द्रक ! जरा सुन, तुझे एक पुराना इतिहास सुनाता हूँ।"
आर्द्रक-"कहिये।"
गोशालक-“तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण महावीर पहले एकान्तविहारी थे और अब ये साधुओं की मण्डलियों को इकट्ठा करके उनके आगे व्याखानों की झड़ियाँ लगाते हैं।"
आर्द्रक- “हाँ, जानता हूँ। पर आप कहना क्या चाहते हैं ?' गोशालक-“मेरा तात्पर्य यह है तुम्हारा धर्माचार्य अस्थिर-चित्त है। पहले वे एकान्त में रहते, एकान्त में विचरते और सभी तरह की खटपटों से दूर रहते थे। अब वे साधुओं की मण्डली में बैठकर मनोरंजक उपदेश देते हैं। क्या इस प्रकार लोकरंजन करके वे अपनी आजीविका नहीं चला रहे हैं ? इस प्रकार की प्रवृत्ति से इनके पूर्वापर जीवन में विरोध खड़ा होता है, इसका भी इन्हें ख्याल नहीं। यदि एकान्तविहार में श्रमणधर्म था तो अब वे श्रमणधर्म से विमुख हैं और यदि इनका वर्तमान जीवन ही यथार्थ माना जाय तो पहला जीवन निरर्थक था, यह सिद्ध होगा। भद्र ! तुम्हारे गुरु की पूर्वापर विरुद्ध जीवनचर्या किसी भी तरह निर्दोष नहीं कही जा सकती। जहाँ तक मैं समझता हूँ, महावीर का वह जीवन ही यथार्थ था जबकि मैं उनके साथ था और वे निस्संग भाव से एकान्तवास का आश्रय लिए हुए थे। अब वे एकान्तविहार
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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