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राजन् ! जिस मुनि को तूने देखा है उसका नाम राजर्षि प्रसन्नचन्द्र है। वह ध्यानावस्था में स्थित था। तूने उस मुनि को प्रणाम किया और आगे निकल आये। __ तुम्हारे पीछे तुम्हारे दो सैनिक वार्तालाप कर रहे थे जिसे इस मुनि ने सुन लिया। वह कह रहा था-"देखो ! यह प्रसन्नचन्द्र राजा अपने छोटे से पुत्र को राजगद्दी पर बैठाकर स्वयं साधु बन गया। अब शत्रु राजा ने उस प्रसन्नचन्द्र के पुत्र पर आक्रमण कर दिया है। युद्ध हो रहा है। प्रसन्नचन्द्र राजा का पुत्र कुछ समय बाद भाग जायेगा। यह राज्य समाप्त हो जायेगा।
इसी बात को सुनकर यह मन ही मन में भाव युद्ध करने लगा। जब तुम गुजरे थे यह स्वयं को युद्ध के मैदान में पा रहा था। इसने राजमुकुट बाँधकर अनेक हाथियों की, घोड़ों की, मनुष्यों की हत्या मन ही मन में कर डाली भूल चुका था कि अब राजा नहीं, मुनि है।
विचारों का युद्ध चल रहा था। काल्पनिक शत्रु को मारने की योजना चल रही थी। प्रसन्नचन्द्र ने अपने सभी शस्त्र समाप्त कर दिये थे। जब शस्त्र समाप्त हो गये तो सिर के मुकुट से ही प्रहार करने का विचार करने लगा। पर ज्यों ही हाथ सिर पर गया, वहाँ मुकुट कहाँ था वहाँ तो मुण्डित सिर था।
मन में उसी क्षण विचार आया मैं मुकुटधारी राजा नहीं हूँ किन्तु नग्न सिर वाला मुण्डित साधु हूँ। ''मैं कहाँ भटक गया ? मेरा शत्रु कौन है ? कौन-सा युद्ध-क्षेत्र है ?"
मन की दिशा बदली। युद्ध-क्षेत्र धर्म-क्षेत्र में बदल गया। मन की धारा बदली। युद्ध तब भी चल रहा था पर शत्रु बदल गये थे। अब दूसरों से नहीं, अपने से युद्ध चल रहा था। वह अपने विकारों और वासनाओं का संहार कर रहा था। ज्यों-ज्यों तुम्हारे प्रश्न चल रहे थे, त्यों-त्यों वह आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की ओर कदम बढ़ा रहा था। नरकों से निकलता-निकलता वह शुभ भाव के कारण स्वर्ग की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा। पर वह स्वर्ग की सीढ़ियों को पार करता हुआ अब मोक्ष के द्वार पर आ पहुँचा। जन्म-जन्म का भला-भटका प्राणी अब केवलज्ञानी बन गया है।
राजा श्रेणिक चिंतन करता रहा मन की विचित्र स्थिति पर। मन जब अधोमुखी हुआ, तो सातवीं नरक तक पहुँच गया और ऊर्ध्वमुखी बना तो सिद्धि और मुक्ति का द्वार खुल गया। श्रेणिक राजा ने श्रद्धा से गद्गद होकर प्रभु महावीर को वन्दन किया और अपने महलों की ओर लौट आया। श्रेणिक के सम्यक्त्व की परीक्षा ____ महाराजा श्रेणिक के प्रभु महावीर के प्रति समर्पण की चर्चा धरती पर ही नहीं, स्वर्ग में भी होने लगी। प्रभु महावीर ने उसे क्षायक सम्यक्त्व का स्वामी बताया। जब प्रभु महावीर ने राजा श्रेणिक को उसका भविष्य बताया था तो उसे टालने की चिंता में वह उपाय करने के लिये राजगृह महलों की ओर लौट रहा था, तभी एक देव ने मायाजाल
बिछाया।
मुनि द्वारा मछली पकड़ना
राजा श्रेणिक ने देखा एक मुनि हाथ में जाल लिए हुए है और नदी से मछलियाँ पकड़ रहा है। राजा श्रेणिक उस मायाधारी मुनि को देखकर रुके और कहा- “मुनिराज ! यह कार्य हिंसक कार्य है। तुम्हें ऐसा हिंसक कार्य नहीं करना चाहिये। इससे लोगों में धर्म की निंदा होती है।'
मुनि बोला-“राजन् ! मैं क्या करूँ। मैं तो बचपन से माँसाहारी हूँ। क्षत्रिय हूँ। शिकार, माँस-मदिरा का त्याग मैं नहीं कर सकता। वैसे प्रभु महावीर के और साधु भी लुक-छिपकर मेरी तरह माँस-मदिरा का सेवन करते हैं। उनके भक्त उन्हें यह सब लाकर देते हैं। मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ सो मैं स्वयं मछलियाँ पकड़कर अपनी माँस-लिप्सा पूरी करता हूँ।"
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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