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________________ प्रभु महावीर की वाणी को श्रद्धापूर्वक राजा श्रेणिक ने सुना और सामायिक के वास्तविक मूल्य को पहचाना। धन से सामायिक खरीदने का उसका अहंकार नष्ट हो गया।३३ सारांश यह है कि ये बातें न होने वाली थीं। इसीलिये सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने श्रेणिक की अज्ञानता मिटाने के लिए यह बात कही थी। क्योंकि प्रभु महावीर जानते थे कि नरक का बंध नहीं टाला जा सकता। राजा श्रेणिक बिम्बसार को प्रतिबोध देने के लिए ऐसा किया गया। राजा श्रेणिक के जीवन की कुछ घटनायें यहाँ वर्णन की जा रही हैं जिनका प्रभु महावीर से संबंध है। राजर्षि प्रसन्नचन्द्र एक समय की बात है। राजा श्रेणिक प्रभु महावीर के दर्शन को जा रहा था। उसने प्रभु महावीर की वन्दना करने के पश्चात् पूछा-“प्रभु ! मैंने रास्ते में एक तपस्वी मुनि को देखा है। वह बहुत उग्र साधना कर रहे थे। सूर्य की ओर ऊँची-ऊँची भुजाएँ फैली हुई थीं। मेरु की तरह अडोल थे। ध्यान में तल्लीन थे। नासाग्र पर दृष्टि केन्द्रित थी। मुख पर अद्भुत समता व शान्ति झलक रही थी। वह इतना उग्र तपस्वी है। मुझे बताने का कष्ट करें कि वह किस उत्तम गति को प्राप्त होगा?" प्रभु महावीर ने कहा-“राजन् ! तूने जिस मुनि के दर्शन किये हैं अगर वह अभी कालधर्म को प्राप्त हो तो मरकर सातवीं नरक में जायेगा।" ___राजा श्रेणिक को प्रभु महावीर की बात पर आश्चर्य हुआ। उसे लगा कि इतनी कठोर साधना वह कर रहा है और इस साधना का अंत सातवीं नरक। प्रभु महावीर ने फरमाया-“मैंने जो पहले कहा, वह भी ठीक था पर अगर अब वह मरे तो छठी नरक में जायेगा।" इस प्रकार प्रभु महावीर ने उस मुनि के भव की पाँचवीं, चौथी, तीसरी, दूसरी व प्रथम तक की भविष्यवाणी कर डाली। उधर राजा श्रेणिक की जिज्ञासा बढ़ती गई। उसने पुनः पूछा-"प्रभु ! अब वह किस गति को प्राप्त करेगा?" भगवान महावीर बोले-"राजन् ! तूने उस मुनि की बाह्य साधना देखी है मन के उतार-चढ़ाव नहीं देखे। पहले वह बाह्यमुखी था अब वह अंतर्मुखी होने के कारण स्वर्ग की ओर प्रयाण करने लगा है। यदि वह इसी क्षण मृत्यु को प्राप्त हो जाये, तो सौधर्मकल्प स्वर्ग में ऋद्धिधारी देव बनेगा।" पर उसकी आत्मा अब चरमोत्कर्ष अवस्था की ओर बढ़ रही है। वह बाह्य कल्प से आगे बढ़ गया है। एक ओर मुनि का आरोहण क्रम चालू था तो दूसरी ओर राजा श्रेणिक के प्रश्न और प्रभु के उत्तर भी। राजा श्रेणिक ने पुनः प्रश्न किया-"प्रभु महावीर ! अब इसकी आत्मा किस स्थिति में है ?" “वह कल्प और ग्रैवयक देव भूमि पार कर सर्वार्थसिद्ध भूमि पर पहुँच गया है।" उसी समय आकाश में देव-दुन्दुभियाँ बजने लगीं। देव-देवियाँ पुष्प-वर्षा करते हुये केवली को प्रणाम करने उतरे। राजर्षि प्रसन्नचन्द्र को केवलज्ञान, केवलदर्शन पैदा हो गया था। प्रभु महावीर ने कहा-“अब उस प्रसन्नचन्द्र मुनि को सिद्ध अवस्था देने वाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है। देव उसी की वन्दना करने आ रहे हैं। अब यह मन के संकल्पों पर विजय प्राप्त कर चुका है। इसका केवल महोत्सव मनाया जा रहा है।"३४ राजा श्रेणिक के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई जिसे सर्वज्ञ प्रभु महावीर समझ गये। राजा श्रेणिक बोला-“प्रभु ! मैं आपकी बात का रहस्य नहीं समझ पा रहा हूँ। एक ही क्षण में जो जीव नरक में विचरण कर रहा था कैसे वह स्वर्ग और मोक्ष तक को प्राप्त कर गया, इसका क्या रहस्य है ? इसे समझाने की अनुकम्पा करें।" सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र १६९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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