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दृष्टि से उससे बड़ा अमीर कोई न था । पूर्णिया व उसकी धर्मपत्नी दोनों सूत कातकर गुजारा करते थे । प्रामाणिक अन्न द्वारा जीवन की गाड़ी चलाते थे। वे काम के अलावा ज्यादा समय श्रावक का एक प्रमुख व्रत सामायिक में गुजारते ।
आज मगध सम्राट् श्रेणिक उस पूर्णिया श्रावक की झोंपड़ी तक स्वयं पहुँचा था । वह यह नहीं समझ पा रहा था कि कर्म का फल नहीं बदलता । उसे प्रभु महावीर पर अथाह भरोसा था। उसके सम्यक्त्व की स्वयं महावीर ने इतनी प्रशंसा की थी। स्वयं एक देव - परीक्षा में श्रेणिक उत्तीर्ण हुआ था । सम्राट् श्रेणिक को अपनी झोंपड़ी में आया देख पूणिया श्रावक को कुछ आश्चर्य हुआ। किसी राजा का गरीब की झोंपड़ी तक पहुँचना कम ही देखा गया है।
राजा श्रेणिक अपनी माया के अहंकार में डूबा हुआ, एक सामायिक की कीमत देने को तैयार हो गया था । अज्ञानतावश वह यह नहीं जान पाया था कि सामायिक खरीदने-बेचने की चीज नहीं है । साधना बेची नहीं जाती, न ही कोई दे सकता है। पर श्रेणिक अहंकार के हाथी पर चढ़ा हुआ था । हमेशा धनवान भक्ति से ज्यादा धन को महत्त्व देता है। वह धन से धर्म खरीदना चाहता है पर हमेशा असफल रहता है क्योंकि धर्म, धन का नाम नहीं भाव दशा का नाम है जो खरीदा नहीं जा सकता, स्वयं घटित होता है।
पूर्णिया श्रावक ने राजा को प्रणाम किया। फिर यथा स्थान राजा को बैठाकर हाथ जोड़कर आने का कारण पूछा। राजा श्रेणिक ने कहा-“आज मैं तेरे दर पर आया हूँ । प्रभु महावीर ने मेरे नरक -गमन टालने का एक यत्न बताया है।" पूर्णिया ने कहा- "राजन् ! मेरे योग्य सेवा हो सो बतायें। मैं इस संदर्भ में क्या कर सकता हूँ ?”
राजा श्रेणिक ने मन की बात स्पष्ट करते हुए कहा- "मैं तुम्हारी एक सामायिक खरीदना चाहता हूँ । इसी सामायिक के फल से मेरा नरक -गमन टल जायेगा । मैं इसका मनचाहा मूल्य देने को तैयार हूँ ।"
मगध का सम्राट् आज एक सामान्य दरिद्री कहे जाने वाले पूर्णिया की झोंपड़ी में आकर एक सामायिक खरीदने आया था। पूर्णिया श्रावक ने राजा की बात सुनी, उसे राजा की बात में अज्ञानता व अहंकार की झलक स्पष्ट नजर आ रही थी ।
पूर्णिया श्रावक ने कहा - "राजन् ! सामायिक का सौदा मैंने पहले नहीं किया। मेरे लिये यह नई बात है जिसे आपने सामायिक खरीदने को कहा है वही इसकी कीमत भी जानते होंगे। आप उनसे कीमत पूछ लीजिये। मैं सहर्ष सामायिक बेचने को तैयार हूँ।"
राजा श्रेणिक अज्ञानता के दलदल में फँस चुका था । वह यह बात सुनकर प्रभु महावीर के पास आया। उसने प्रभु महावीर से प्रार्थना की- “भगवन् ! पूणिया श्रावक सामायिक बेचने को तैयार है। वह एक सामायिक का मूल्य नहीं जानता । कृपया आप ही एक सामायिक का मूल्य बताइये। मैं समस्त राज्य देकर भी सामायिक ले लूँगा ।”
प्रभु महावीर ने राजा श्रेणिक को समझाते हुये कहा - "देवानुप्रिय ! तुम भौतिक वैभव की तुलना सामायिक से करना चाहते हो? यदि सुमेरु की तरह स्वर्ण, चाँदी, हीरे, पन्ने, माणक्य और मोतियों के अम्बार भी लगा दो, तो भी सामायिक का मूल्य तो क्या, सामायिक की दलाली भी नहीं हो सकती है। राजन् ! मैं पूछता हूँ कि एक व्यक्ति मृत्यु- शय्या पर पड़ा जीवन की अंतिम साँसें गिन रहा है, क्या संसार की सारी सम्पदा उसे मरने से बचा सकती है ?"
राजा श्रेणिक- "प्रभु ! यह बात तो असंभव है।"
प्रभु महावीर - "तुम्हारी भौतिक सम्पदा से बढ़कर जीवन का मूल्य है। एक क्षण का जीवन भी मणि- मुक्ताओं से नहीं खरीद सकते। क्योंकि माणिक्य मुक्ता तो भौतिक सम्पदा के सिवा कुछ नहीं है। सामायिक तो आत्म-भाव है। यह अंदर की साधना है। समता की साधना है। सामायिक आत्मा में घटित होती है, खरीदी नहीं जा सकती । राग-द्वेष की विषमता से चित्त को दूर कर जन से जिन बनना, यही सामायिक का आध्यात्मिक मूल्य है। उसे प्राप्त करने के लिए मन को स्फटिक की भाँति निर्मल बनाना होता है। समत्व में स्थिर करना होता है।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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