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________________ राजा श्रेणिक - " आप दूसरे मुनियों पर व्यर्थ दोष मत लगायें। अपनी कमजोरी को किसी और के सिर पर मढ़ना अच्छा नहीं।" फिर मुनि ने जो आगे बताया, वह इससे भी भयंकर था। उसने बताया कि "मैं मछली के साथ मदिरा पीता हूँ । मदिरा पीकर उसका मन बहक जाता है तो कभी-कभी वेश्या के यहाँ भी जाता हूँ। वेश्या को धन चाहिये, इसके लिये कभी-कभी चोरी भी करनी पड़ती है, फिर जुआ भी धन के बिना खेलना असंभव है। सो चोरी करता हूँ ।" राजा श्रेणिक ने इस मायाधारी मुनि की बातों को सुना, पर अपने सम्यक्त्व से विचलित नहीं हुआ। सगर्भा साध्वी राजा श्रेणिक अभी कुछ ही दूर गया था कि एक सगर्भा साध्वी देखी। राजा श्रेणिक वहाँ रुका । साध्वी सगर्भा ही नहीं थी, उसने हार - शृंगार कर रखा था। राजा ने साध्वी से कहा- “आर्य ! आपने यह क्या कर डाला? यदि आपका मन इतना दुर्बल था तो संयम ही क्यों लिया ? चलो, जो हुआ सो हुआ। अब आप मेरे घर पधारो । मैं आपको प्रसवकाल तक सँभालता हूँ। प्रसव होने के पश्चात् पुनः आलोचना कर संयममार्ग पर स्थिर हो जाना ।" राजा श्रेणिक के इस कल्याणकारी कथन का साध्वी पर विपरीत असर हुआ । उसने क्रोधित होते हुये कहा"राजन् ! अपनी सहायता अपने पास रखो। भगवान महावीर के संघ में कौन दुराचारी नहीं ? लुक-छिपकर सब कामभोगों का सेवन करते हैं। मुझे किसी की चिंता नहीं ।" राजा श्रेणिक को साध्वी के इस कथन पर क्रोध आ गया। उसने साध्वी से कहा - " अपनी कमजोरी छिपाने के लिये दूसरों पर दोष मढ़ना कहाँ की समझदारी है ? प्रभु महावीर पवित्र हैं। उनका संघ पवित्र तीर्थ है। तुम्हारे सभी दोष मिथ्या हैं। हाँ, मैं इस मुसीबत से तुम्हें छुटकारा दिला सकता हूँ ।" पर यह तो देव-माया थी जो कुछ समय में सिमट गई। स्वर्ग के देव दुर्दरांक की परीक्षा थी जिस पर राजा श्रेणिक खरे उतरे। देव ने प्रत्यक्ष होकर राजा श्रेणिक की संघ - भक्ति की प्रशंसा की। उन्हें दिव्य हार और दो मिट्टी के गोले दिये जो राजा ने अभयकुमार की माता नंदा और रानी चेलणा दे दिया। इस दिव्य हार का नाम वंकचूल था । एक गोले में देवदूष्य वस्त्र व दूसरे में से दिव्य कुण्डल निकले जो रानियों की कलह का कारण बने। पर राजा श्रेणिक अपनी भक्ति में मगन थे। वह परीक्षा में खरे उतरे । महाराजा श्रेणिक के परिवार में धर्म-प्रभावना महाराजा श्रेणिक मगध के सम्राट् ही नहीं थे, प्रभु महावीर के परम भक्त थे। चाहे वह वृद्ध हो चुके थे पर उनके मन में निर्ग्रन्थों के प्रति अथाह श्रद्धा थी । उसी श्रद्धा के वशीभूत उन्होंने एक बार राज-परिवार, सामन्तों और मंत्रियों में यह उद्घोषणा की - "जो कोई भी प्रभु महावीर के चरणों में प्रव्रज्या ग्रहण करेगा, मैं उसे रोकूँगा नहीं । ३५ वह सहर्ष दीक्षा स्वीकार करे । उसके पीछे कोई पारिवारिक चिंता है, उसकी चिंता की जिम्मेदारी का वहन मैं स्वयं करूँगा। जिसे साधु या साध्वी बनना है, अपनी आत्मा का कल्याण करना है वह प्रभु महावीर का शिष्य बन जाये ।" इस उद्घोषणा का अच्छा प्रभाव राज परिवार पर भी पड़ा। बहुत से नागरिकों ने प्रभु महावीर के चरणों में प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। राजा श्रेणिक के २३ पुत्रों ने प्रभु महावीर के चरणों में निर्ग्रन्थ धर्म में प्रव्रज्या स्वीकार की, जिनके मंगलमय नाम इस प्रकार हैं- (१) जालि, (२) मयालि, (३) उपालि, (४) पुरुषसेन, (५) वारिषेण, (६) दीर्घदन्त, (७) लष्टदंत, (८) वेहल्ल, (९) वेहास (१०) अभयकुमार, ३६ (११) दीर्घसेन, (१२) महसेन, (१३) लष्टदंत, (१४) गूढ़दन्त, (१५) शुद्धदंत, (१६) हल्ल, (१७) द्रुम, (१८) द्रुमसेन, (१९) महाद्रुमसेन, (२०) सिंह, (२१) सिंहसेन, (२२) महासिंहसेन, (२३) पूर्णभद्र । ३७ महाराजा श्रेणिक की तेरह रानियों ने भी प्रव्रज्या स्वीकार की, जिनके शुभ नाम इस प्रकार हैं - ( 9 ) नन्दा, (२) नंदमती, (३) नन्दोत्तरा, (४) नन्दिसेणिया, (५) मरुया, (६) सुमरिया, (७) महामरुता, (८) मरुदेवा, (९) भद्रा, (१०) सुभद्रा, (११) सुजाता, (१२) सुमना, (१३) भूतदत्ता । Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only १७१ www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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