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प्रभु द्वारा स्पष्टीकरण
हे राजन् ! उस वृद्ध ने तुमसे कहा - "जीते रहो।" इस बात में परम रहस्य छिपा है। इसका अर्थ है इस जन्म में तुम मगध के सम्राट् बने धन, सम्पदा, परिवार के स्वामी हो। तुम जितने दिन जीवित रहोगे उतने दिन इस संसार में कोई कष्ट नहीं है । पर आगामी भव में तुम्हारे लिए नरक तैयार है । वहाँ भयंकर कष्ट है, दारुण वेदना है। यह फूल है तो अगले जन्म में शूल है। इसलिए जब तक जीवित हो तभी तक तुम्हारे लिए अच्छा । तुम्हारा मरण अच्छा नहीं।"
फिर इसने मुझे कहा - "तुम मरो ।" राजन् ! यह जन्म मेरा आखिरी जन्म है, घनघातीय कर्मों का नाश मैंने कर दिया है। मैं केवलज्ञान द्वारा अर्हत् अवस्था में हूँ। अंतिम अवस्था अर्हत् अवस्था नहीं, जन्म-मरण से मुक्त अवस्था है। जिसे सिद्ध गति कहते हैं । फिर आत्मा, परमात्मा बन जाती है। आवागमन, जन्म, जरा, व्याधि की समाप्ति हो जाती है । ही पूर्ण अवस्था है। इसीलिए मेरी देह को बन्धन मानते हुऐ मुझे मरने को कहा है।
राजन् ! उस देव ने अभयकुमार से कहा - "तुम चाहे जीओ, चाहे मरो ।” अभयकुमार का जीवन में भोग के साथ त्याग भी है। इसका जीवन भ्रमर के समान है, जो रस लेते हुए भी डूबता नहीं इसलिए इसका जीवन यहाँ भी सुखी है। भय और शोक से रहित है। अगला जीवन भी भव्य है । यह यहाँ से मरकर देव बनेगा । इसका आगामी भव भी भव्य है। लोक में भी इसे सुख है, परलोक में भी यह सुखी रहेगा । इसीलिए देव ने कहा--" चाहे जीओ, चाहे मरो। "
मेरी सभा में कालशोरिक के लिए उसने कहा- "न मरो न जीओ।" इसका अर्थ यह है कि इसका जीवन यहाँ भी दरिद्रता और अंधकार से व्याप्त है। वह हिंसा और क्रूरता की ज्वलंत प्रतिमा है। ऐसी परिस्थिति में आगामी भव में सुख किस प्रकार आ सकता है ? वह जब तक जीता रहेगा, तब तक हिंसा करता रहेगा और मरकर नरक में पैदा होगा। इसे यहाँ भी शांति नहीं और न परलोक इसका सुखी है। इसीलिए देव ने कहा- "इसका न मरना अच्छा, न जीना।"
राजा श्रेणिक प्रभु के समाधान सुनकर नतमस्तक हो गया। पर साथ में अपने भविष्य को सुनकर दुःखी हुआ । उसने कहा- "प्रभु ! आपका भक्त क्या नरक में जाता है ?"
प्रभु महावीर राजा श्रेणिक की भयत्रस्त आत्मा की भाषा को जान चुके थे।
प्रभु महावीर ने कहा - "राजन् ! कर्मफल का संबंध जीवात्मा से है। मैं तो स्वयं कर्मबंधन तोड़ने के प्रयत्न में हूँ । तू अज्ञानता के कारण कर्मलीला को नहीं समझ रहा। तुमने मृग हत्या के कारण पहले ही नरक आयुष्य बाँध लिया है। रही बात मेरी भक्ति की, इसकी उपासना का फल तो तुझे शीघ्र मधुर मिलेगा। जैसे मैं अंतिम तीर्थंकर के रूप में पैदा हुआ हूँ, तू भी भविष्य में होने वाली तीर्थंकर परम्परा का प्रथम तीर्थंकर पद्मनाभ बनेगा। पर याद रखो, हर जीव को किये कर्मों का फल भोगना होता है। आगामी भव में तुझे नरक जाना है।"
राजा श्रेणिक जहाँ अपने नरक - गमन की भविष्यवाणी से दुःखी था वहाँ तीर्थंकर गोल बाँधने के समाचार से अत्यधिक प्रसन्न हुआ। पर फिर भी उसे प्रभु महावीर पर बहुत भरोसा था । अथाह श्रद्धा थी । उसी श्रद्धावश राजा ने प्रभु महावीर से पूछा- ' - "क्या नरक-गमन को टालने का कोई उपाय है ?"
प्रभु महावीर श्रेणिक की अज्ञानता को पहचान रहे थे। उन्होंने राजा श्रेणिक को समझाने के लिए कुछ उपाय बताते हुए कहा- "राजन् ! कपिला ब्राह्मणी सुपात्रदान दे तथा कालशोरिक कसाई जीव-हिंसा का त्याग कर दे तो तुम्हारा नरक टल सकता है।"
आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनि जी ने इस संदर्भ में कहा है- "उत्तरवर्ती ग्रंथों में प्रभु महावीर द्वारा दो और उपाय बताने का वर्णन है। वह है - राजा श्रेणिक की दादी मुनियों के दर्शन करे या पूर्णिया श्रावक एक सामायिक का फल दे।"
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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