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दो रात्रियाँ ठीक गुजरीं। तीसरी रात्रि बाकी थी। दिन तो जैसे-तैसे करके बीत गया। रात्रि में भंयकर गर्मी पड़ने लगी। नंद मणिकार के शरीर से पसीना आने लगा। अब उसे भूख-प्यास भी सताने लगी । प्यास के मारे उसका गला सूख गया। गले का थूक तक सूख गया।
नंद मणिकार सोचने लगा कि - 'जीवन में पानी का कितना महत्त्व है। मेरी यह रात्रि पूर्ण हो जाये, तो सुबह उठते मैं राजा श्रेणिक की आज्ञा से वैभारगिरि पर्वत के पास बाबड़ी बनाऊँगा । एक सुन्दर विशाल बाग लगाऊँगा जिसमें सार्वजनिक प्याऊ होगा।'
सुबह हुई । नंद मणिकार घर आया । पारणा करने के पश्चात् वह सीधा तुम्हारे (राजा श्रेणिक) के पास गया। राजा ने उसे वैभारगिरि के पास बाबड़ी बनाने की स्वीकृति प्रदान कर दी और पुण्य - कार्य समझकर भूमि भी प्रदान की ।
सेठ ने कारीगर लगाये। कुछ निश्चित समय में सुन्दर बाबड़ी व बाग तैयार हो गया। योजनानुसार उसमें प्याऊ लगा। बाबड़ी जो पुष्करिणी के नाम से प्रसिद्ध थी, इसका नामकरण भी उसने अपने नाम पर नन्द पुष्करिणी रखा।
इस बाबड़ी के पूर्व दिशा में चित्रशाला का निर्माण कराया । दक्षिण दिशा में चिकित्सालय बनाया। उत्तर दिशा में अलंकार सभा का निर्माण किया जहाँ उर थका-माँदा अपनी मालिश करवा सकता था ।
नंद अब पूरी तरह लोकैषणा (प्रसिद्धि) के दलदल में फँस चुका था। जब भी लोग नंद पुष्करिणी की प्रशंसा करते, तो उसका सीना अहंकार से फूल जाता । परोपकार के साथ जब लोकैषणा का भाव जुड़ जाये, तो : पुण्य कार्य की मूल भावना समाप्त हो जाती है। यह नन्द मणिकार के साथ हुआ।
अपने पुण्य कार्यों की प्रशंसा सुनते-सुनते उसका अहं बढ़ता गया । आखिर जीवन की शाम आ गई। वह बीमार पड़ा। पर अब उसका आयुष्य समाप्त हो चुका था । वह मर गया ।
मरने से पूर्व उसने कोई धर्म - आराधना नहीं की। अपने रिश्तेदारों से पुष्करिणी का ध्यान रखने को जरूर कहा । उसे अंत समय भी अपनी बाबड़ी का ध्यान रहा। वह मरकर उसी बाबड़ी में मेंढ़क बना।
मेंढ़क बनने के पश्चात् भी उसे अपना पूर्वभव याद रहा। वह अपनी ही बाबड़ी में दुर्लभ मानव शरीर त्यागकर मेंढ़क बना था। कभी-कभी वह किनारे पर आ जाता। लोगों से अपनी यशः कीर्ति की गाथा सुनता तो इस तिर्यच भव में भी वह प्रसन्न होता ।
एक बार मैं पुनः राजगृही नगरी में पहुँचा । मेरा समवसरण लगा। धर्म-प्रवचन होने लगा। उधर राजा श्रेणिक चतुरंगी सेना सहित वन्दना करने आ रहे थे।
यह मेंढ़क भी उस समय किनारे पर बैठा था । उसने मेरे आगमन की सूचना सुनी तो उसने पहले मुझे भाव वन्दन किया । फिर वह तालाब से बाहर आया । इसका चिंतन बदल चुका था । यह सोच रहा था कि 'इस आसक्ति के कारण मैं इस योनि में पैदा हुआ हूँ। मुझे समवसरण में जाकर उपदेश सुनना चाहिये ।'
इसी चिंतन के कारण यह मुख्य राजमार्ग पर आया । आते ही इसका सामना राजा श्रेणिक की चतुरंगी सेना से पड़ा। मेंढक ने हौसला नहीं छोड़ा। धर्म के आवेग में ज्यों ही आगे बढ़ा, तो घोड़े के पाँव के नीचे आकर कुचल गया। उसने अंतिम समय धर्म-आराधना करते हुये अरिहंत सिद्ध का शरण लिया ।
पूर्वभव की थोड़ी-सी धर्म - श्रद्धा के कारण अब यह महान् ऋद्धि वाला देव बना है।
सो किसी भी कार्य में आसक्ति नहीं रखनी चाहिये। राग-द्वेष कर्म का बीज है। आसक्ति से बचने वाला जीव धर्म के मूल तत्त्व को पहचानता है। लोकैषणा के साथ किया गया दान-पुण्य का शुद्ध धर्म से कोई संबंध नहीं । आत्मकल्याण तो लोकैषणा के भाव से ऊपर उठकर किये गये कार्य से होता है।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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