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________________ ऐसे समय में उसकी धर्मपत्नी धन्या ने उसे धर्म में पुनः स्थापित किया । उसे अपनी पत्नी द्वारा बताया गया कि पुत्र सुरक्षित हैं। तुमने धर्म-साधना भंग की है। इसका प्रायश्चित्त ग्रहण करो।” “आपके पत्नी का सुझाव उसने तत्काल मान लिया। वह लम्बे समय तक श्रावक धर्म की आराधना करता हुआ आत्मा को निर्मल बनाता गया। जीवन के अन्तिम क्षणों में उसने आलोचना, प्रायश्चित्त स्वीकार किया। आयुष्य कर्म के पूरा होने पर वह सौधर्म देवलोक में देव बना । २८ पुद्गल परिव्राजक द्वारा श्रमण दीक्षा वाराणसी से प्रभु महावीर आलभिया नगरी के शंखवन उद्यान में पधारे। यहाँ के राजा का नाम भी जितशत्रु था । उसने भी प्रभु महावीर का उपदेश श्रद्धा से सुना । इसी वन के नजदीक पुद्गल परिव्राजक रहता था जो चारों वेदों व ब्राह्मण ग्रन्थों का गम्भीर ज्ञाता था । निरन्तर वह तप के साथ सूर्य के सम्मुख ऊर्ध्वबाहु खड़ा होकर आतापना लेता था । इसी तप के प्रभाव उसे विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे वह ब्रह्मलोक तक के देवों की गति स्थिति को प्रत्यक्ष निहारने लगा । २९ उसे लगा कि उसे आत्म-ज्ञान हो गया है। मैं देख रहा हूँ कि देवों की कम से कम आयु १०,००० वर्ष होती है। ज्यादा से ज्यादा १० सागरोपम। इसके आगे न देव हैं न देवलोक । पुद्गल परिव्राजक ने अपने धार्मिक उपकरण ग्रहण किये। वह आलभिया के चौक बाजारों में अपनी मान्यता का प्रचार करने लगा। कई लोग उसके ज्ञान के प्रशंसक थे। शंकाएँ उठाते थे। गणधर गौतम आलभिया नगरी में भिक्षार्थ घूम रहे थे । पुद्गल के ज्ञान व सिद्धान्त की चर्चा उनके कानों में पहुँची । भिक्षा से आते ही उन्होंने अपने गुरु प्रभु महावीर से पुद्गल की सारी बात कह डाली । प्रभु महावीर ने समाधान करते हुए कहा- " "देवानुप्रिय ! पुद्गल का कथन उचित नहीं है, देवों की आयु कम से कम १० हजार वर्ष, ज्यादा से ज्यादा ३३ सागरोपम है ।" प्रभु महावीर के इस कथन को सारी धर्मसभा ने सुना । लोगों ने प्रभु महावीर के ज्ञान की प्रशंसा की । • भगवान महावीर की यह बात पुद्गल परिव्राजक के कानों में पहुँची। वह पहले से ही जानता था कि महावीर सर्वज्ञ, जिन, अरिहंत, केवलज्ञानी, अन्तिम तीर्थंकर हैं, महान् तपस्वी हैं, उसे अपने ज्ञान पर विश्वास न रहा । वह उसे ज्यों-ज्यों चिन्तन करता गया उसका विभंगज्ञान लुप्त होता गया । वह प्रभु महावीर के समवसरण में पहुँचा । विधियुक्त वन्दना की और उचित स्थान पर बैठ गया। भगवान महावीर के प्रवचन को सुनकर उसे निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा उत्पन्न हो गई । वह श्रमण बन गया। फिर भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभु महावीर के निर्देशन व आज्ञा में तप द्वारा आत्मा को पवित्र बनाता हुआ अन्तिम समय मोक्ष में चला गया। जैन परम्परा में मोक्ष किसी लिंग, जाति, समुदाय तक सीमित नहीं है। हर साधक देश, कुल, लिंग के भेद से परे होकर उसे प्राप्त कर सकता है । ३० चुल्लशतक द्वारा श्रावक धर्म - आराधना उस समय आलभिया नगरी में चुल्लशतक और उसकी धर्मपत्नी श्यामा रहते थे। इनके पास १४ करोड़ों की स्वर्ण-मुद्रायें और ६०,००० गायों के ६ गोकुल थे। प्रभु महावीर से इन्होंने श्रावक के व्रत स्वीकार किये। एक रात्रि चुल्लशतक श्रावक पौषधशाला में बैठा धर्म-आराधना कर रहा था। एक देव रात्रि के समय प्रकट हुआ । उसने तीन बार धमकी देते हुए कहा- "अगर तू इस भगवान महावीर के श्रावक धर्म को नहीं छोड़ेगा, तो मैं तुम्हारे पुत्रों को मारकर उबालूँगा और उनके रक्त-माँस से तुम्हारे शरीर को सिंचित करूँगा।" १६० Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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