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________________ एक बार राजर्षि उदयन मुनि बनकर वीतभय पत्तन पधारे। मन्त्रियों ने भानजे केशी को इतना भड़काया कि वह इस धार्मिक आगमन को षड्यन्त्र मानने लगा। राजर्षि उदायन को न तो ठहरने को स्थान दिया और न भोजन। केशी ने उनके भोजन में जहर मिला दिया जिसे प्रभावती ने अपने देव-बल से दूर किया। एक बार देवों की अनुपस्थिति में उन्हें विष-मिश्रित आहार मिला। यह आहार शरीर में फैल गया। मुनि ने समाधिमरण द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया। देवी प्रभावती ने उस वीतभय नगर को धूल का ढेर बना दिया। वहाँ एक कुम्हार ही बच पाया, जिसने राजर्षि उदायन की सेवा की थी। देवी उसे सिनपल्ली में ले गई जहाँ उस स्थान का नाम कुम्भकार पक्खेव पड़ा।२६ अठारहवाँ वर्ष __ प्रभु महावीर ने वीतभय पत्तन में राजा उदायन का उद्धार किया। आपने आसपास के नगरों, गाँवों में प्रचार किया। यह गाँव अधिकांश रूप से पाकिस्तानी पंजाब में पड़ते हैं। वीतभय नगर से प्रभु महावीर सीधे वाणिज्यग्राम पधारे थे। वाणिज्यग्राम किस देश में पड़ता था, इसका उल्लेख नहीं है। यहीं प्रभु महावीर ने अपना वर्षावास बिताया। इस वर्षावास में किसी प्रमुख उल्लेखनीय घटना का वर्णन नहीं मिलता। समीक्षा __पर जब प्रभु महावीर वीतभय पत्तन से वाणिज्यग्राम (विदेह देश) पधारे होंगे, तो कितना लम्बा विहार क्षेत्र होगा? निश्चय ही वह सिन्धु-सौविर के अन्तर्गत लम्बी दूरी तक न गये हों, पर वापसी की दूरी भी कम न रही होगी। फिर प्रभु महावीर तो ग्राम-ग्राम में धर्मदेशना देते थे। सम्भवतः हमें आज जो राजस्थान का मानचित्र प्राप्त होता है वह तो (देशी) रियासतों का संग्रह है। राजस्थान के कई भाग मध्य प्रदेश, सिन्धु, वर्तमान पंजाब, उत्तर प्रदेश से लगते थे। आज भी श्रीगंगानगर जिला पंजाब से लगता है। उस समय मुलतान, लाहौर, करनूर, गंधार आदि प्राचीन नगर थे। वहाँ भी प्रभु महावीर के भक्त थे। इसी चातुर्मास में भगवान महावीर ने अपने कुछ साधु-साध्वियों को इस क्षेत्र में छोड़ा होगा। तभी पंजाब, हरियाणा, देहली के लोग जैनधर्मावलम्बी बनते गये। विदेशी आक्रमणकारियों ने यहाँ जैनधर्म को काफी हानि पहुँचाई है। फिर भी जैनधर्म यहाँ रहा है। ___ वाणिज्यग्राम का चातुर्मास सम्पन्न कर प्रभु महावीर वाराणसी में पधारे। वाराणसी वैदिक, जैन व बौद्ध परम्परा का त्रिवेणी संगम था। यहीं प्रभु सुपार्श्वनाथ उत्पन्न हुए थे। करीब ही सिंहपुर (सारनाथ) में श्रेयांसनाथ व चन्द्रपुरी में प्रभु चन्द्रप्रभ का जन्म हुआ था। वाराणसी से निर्ग्रन्थ परम्परा का रिश्ता बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है। इसी कारण अनेक श्रावक व साधु इस नगर में निर्ग्रन्थ श्रमण धर्म का प्रचार करते थे। इसी नगरी में उस समय का राजा जितशत्रु भी प्रभु महावीर का भक्त था। जब उसे समाचार मिला कि प्रभु महावीर वाराणसी के कोष्टक चैत्य में विराजमान हैं, तो वह चतुरंगी सेना के साथ प्रभु महावीर का धर्म-उपदेश सुनने आया। उसने प्रभु महावीर की वन्दना की। फिर उपदेश सुनकर बहुत प्रभावित हुआ। नगर में प्रभु महावीर के आगमन व धर्मोपदेश की चर्चा होने लगी। अनेक लोग श्रावक व श्रमण धर्म में दीक्षित हुए। इनमें प्रमुख व्यक्तियों की कथा इस प्रकार हैचुलनीपिता की कथा ___ श्री उपासकदशांगसूत्र में जिन प्रमुख श्रावकों का वर्णन आया है उसमें चुलनीपिता भी एक थे। वह चौबीस करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं के स्वामी थे। उनकी पत्नी श्यामा थी। उनके आठ गोकुल थे। हर गोकुल में १०,००० गायें थीं। दोनों पति-पत्नी ने प्रभु महावीर का उपदेश सुना, फिर श्रावक के बारह व्रतों को ग्रहण किया। वृद्धावस्था में पुत्र को घर का भार सँभालकर वह अपनी पौषधशाला में धर्म-आराधना करने लगे। १५८ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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