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दोनों प्रभु महावीर के समवसरण की ओर बढ़ने लगे। दूर से उस किसान ने प्रभु महावीर को देखा । प्रभु महावीर को देखते ही किसान पर भयंकर क्रोध का आवेश छा गया।" वह चुपके से प्रभु महावीर के सामने था । गौतम स्वाम ने कहा-“यह मेरे धर्माचार्य तीर्थंकर प्रभु महावीर हैं। मैं इनका शिष्य हूँ। बड़े-बड़े सम्राट्, धनकुबेर, देव - देवियाँ इन्हें वन्दन करते हैं। संसार के कल्याण के लिए गाँव-गाँव, नगर-नगर घूमते हैं।”
भगवान महावीर को देखते ही उसके पसीने छूट गये । उसने कहा- "मैं इनके पास नहीं जाऊँगा।”
गौतम - "यही तो हमारे गुरु व धर्माचार्य हैं।"
किसान-“यदि ये ही तुम्हारे गुरु हैं, तो तुम्हीं रहो, मुझे नहीं ऐसा गुरु चाहिए। अब मेरा - तेरा कोई वास्ता नहीं ।" यह कहकर भयभीत किसान भाग गया। गणधर गौतम ने इस घटना का समाधान चाहा तो प्रभु महावीर ने बताया, उस अबोध किसान को तुझे देखकर असीम प्रेम जागृत हुआ और मुझे देखकर भागा। इसके पीछे पूर्वजन्म की घटना है। चाहे कोई तीर्थंकर हो, चाहे चक्रवर्ती, कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है। यह किसान पूर्वभव से तुम्हारा मित्र चला आ रहा है। जब मैं त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में था तब तुम मेरे सारथी थे । यह किसान उस समय गुफा में रहने वाला सिंह था। जिसने उस गाँव में रहने वालों का जीना हराम कर रखा था । त्रिपृष्ट राजकुमार के रूप में मैंने इस सिंह
समाप्त करने की जिम्मेवारी सँभाली। तुम सारथी के रूप में मेरा रथ हाँक रहे थे । मैं सिंह की गुफा में जा पहुँचा । मैंने उसे ललकारा। फिर हम दोनों गुत्थमगुत्था हो गये। मैंने सिंह को मार डाला। जब इस सिंह की अन्तिम साँसें चल रही थीं, तब तुमने उसे प्रिय वचनों से सम्बोधित करते हुए कहा था- " वनराज ! मन में ग्लानि और खेद मत करो । तुम्हें मारने वाला कोई साधारण मनुष्य नहीं है । यह राजकुमार त्रिपृष्ट भी नरसिंह हैं। अतः सिंह की वीर मृत्यु क नरसिंह के हाथों से हुई है। तुम शोक मत करो। २४ तुम्हारे इन्हीं प्रिय वचनों से इसे अन्त समय में शान्ति मिली। आहत सिंह ने अहंमूलक प्रसन्नता में प्राण त्याग किया।
बस, यही कारण है कि यह किसान तुम्हारे द्वारा प्रतिबोधित हुआ। मेरे हाथों से मारे जाने के कारण मेरी शक्ल देखकर भागा। यह पूर्वजन्म का कर्मफल था । मैंने इसी कारण तुम्हें भेजा ताकि इस जीव का कल्याण हो । २५ तुम्हारे सत्संग से इसके मन में सम्यक्त्व का स्पर्श हो गया है। अब इसके मन में सम्यक् दर्शन की ज्योति जग गई है । अतः यह मिथ्यात्व में नहीं फँसेगा। याद रखो अन्तर्मुहूर्त्त का सम्यक् दर्शन प्राप्त करने वाला एक दिन मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। मैंने इसी योजना को कार्यरूप देने तुम्हें भेजा था। इस कारण तुम सफल हुए।
प्रभु महावीर वीतभय पत्तन पहुँचे। राजा व प्रजा ने उनका इतना सन्मान -सत्कार किया कि उनका चातुर्मास वीतभय नगरी में हुआ।
राजा ने धर्म-उपदेश सुनने के पश्चात् कहा- "प्रभु! मैं अपने पुत्र को जब तक राज्य न दे दूँ, आप वहाँ से न जायें।" प्रभु महावीर ने कहा-'देवानुप्रिय ! जो करना है, कर लो। शुभ काम में प्रमाद अच्छा नहीं।”
राजा घर आया। उसने चिन्तन किया-'अगर मैं पुत्र को राज्य दे दूँगा, तो यह राज्य में आसक्त हो जायेगा। लम्बे समय तक संसार के भव-भ्रमण में भटकेगा। इस भव-भ्रमण का कारण मैं बन जाऊँगा। क्यों न मैं समस्त राज्य अपने भानजे केशी को दे दूँ। कुमार पूर्ण सुरक्षित भी रहेगा।'
राजा ने अपनी योजना अनुसार राज्य भानजे को देकर बड़े राजसी ठाट से दीक्षा ग्रहण की। उसने पंजाब का नाम ऊँचा किया। इस राजा के कारण प्रभु महावीर ने पंजाब के कई क्षेत्रों का स्पर्श किया। यहाँ की जनता को धर्म-उपदेश सुनने का अवसर मिला ।
राजर्षि उदायन ने दीक्षा के पश्चात् लम्बा तप किया। उपवास से लेकर मास अवधि तक की तपस्या से शरीर कृशक्षीण हो गया। फिर रुग्ण हो गया। वैद्यों ने दही सेवन बताया। गोकुल में यह सब सहज रूप में उपलब्ध हो जाता है। मुनि ने उसी दृष्टि से उस ओर विहार किया ।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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