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________________ थी। बड़ी-बड़ी समस्या सुलझाने में दक्ष थे। इसकी बुद्धि का प्रमाण निरयावलिकासूत्र में मिलता है जब उन्होंने राजा कोणिक की रानी चेलना की दोहद समस्या को हल किया था। इसी तरह इन्होंने रानी धारिणी का दोहद भी पूर्ण करवाया। इनकी बुद्धि के कारनामे अकबर-बीरबल के चुटकलों की तरह हैं। प्रभु महावीर के यह परम श्रावक थे। बाद में यह भी साधु बन गये। अभयकुमार ने एक बार मानव जाति को समझाया था कि सबसे महँगा भोजन माँस है। एक बार राज्यसभा में चर्चा हुई कि “सस्ता भोजन कौन-सा है ?" ज्यादा लोगों ने माँस कहा। __ अभयकुमार ने एक नाटक रचा। फिर वह उन सब लोगों के पास एक तोला मानव-माँस के लिए गया। उसने कहा-"राजा बीमार है, उन्हें एक तोला मानव हृदय का माँस चाहिए। बदले में कितनी भी कीमत ले लीजिए।" सभी माँसाहारियों ने उल्टे अभयकुमार को धन दिया, जो अभयकुमार ने राज्यसभा में राज्य के सम्मुख प्रस्तुत किया। फिर उसने कहा-“इतने पैसे में भी कोई एक तोला मानव-माँस देने को तैयार नहीं है।" इसी तरह एक बार एक लकड़हारा गरीबी के कारण प्रभु महावीर के शिष्य सुधर्मा के पास साधु बन गया। सब उसका अपमान करते। सब कहते-“काम न करने के कारण यह साधु बना है।" अभयकुमार ने एक लाख स्वर्ण-मुद्राएँ साथ ली। चौराहे पर घोषणा करवायी-“जो व्यक्ति अग्नि जलाने का त्याग करेगा और ब्रह्मचर्य का पालन करेगा वह इन मुद्राओं को ले ले।' सारा दिन बीत गया। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं आया जो इन दोनों का त्याग कर सके। अभयकुमार ने कहा"मुनिधर्म का पालन बहुत मुश्किल है। वह तो सारी उम्र पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों, तीन गुप्तियों का पालन करते हैं। यह लकड़हारा कितना पूजनीय है जो कठोर मुनिधर्म का पालन कर रहा है।" चौदहवाँ वर्ष प्रभु महावीर संसार के कल्याण के लिए घर से निकले थे। संसार में फैले अंधकार को देख उनका मन इतना दुःखी हुआ कि वह जंगल में साढ़े बारह वर्ष के लिए ध्यानस्थ हुए। अनेक कष्टों, उपसर्गों के बाद उन्हें जो केवलज्ञानरूपी शाश्वत अमृत मिला था, वह उन्हें बाँटने में दिन-रात एक कर रहे थे। उनका प्रथम वर्ष सफलताओं से भरा हुआ था। यह वर्ष क्रान्तिकारी वर्ष था। समाज को एक बदलाव अहिंसक ढंग से मिल रहा था। प्रभु महावीर ने राजगृह में धर्म-प्रचार करने के बाद ग्राम-ग्राम, नगर-नगर विचरना शुरू किया। वह विदेह देश के गाँवों, नगरों को अपनी चरण-रज से पवित्र करते हुये अपनी जन्म-भूमि के एक भाग ब्राह्मण क्षत्रिय कुण्डग्राम में पधारे। वहाँ का बहुशाल चैत्य प्रभु महावीर की देशना का स्थल था। लोगों को अपने प्रिय वर्द्धमान के आगमन की सूचना मिली। ऋषभदत्त ब्राह्मण व देवानन्दा की दीक्षा उस गाँव में ऋषभदत्त ब्राह्मण व देवानंदा ब्राह्मणी रहते थे। ऋषभदत्त का गोत्र कोडाल था। देवानंदा जालंधरीय गोत्रीय थीं।३ वह चार वेदों का ज्ञाता होने के साथ-साथ श्रमणोपासक भी था। वह परम्परा से क्रियाकांडी ब्राह्मण था पर वह श्रमणों के प्रभाव से ब्राह्मणवाद से दूर हो गया था। प्रभु महावीर के दर्शन करने वह पहुँचा। भगवान महावीर की वन्दना कर वह निग्रंथ प्रवचन सुनने हेतु बैठ गया। उपदेश समाप्त होते ही ऋषभदत्त ने प्रव्रज्या लेने की इच्छा व्यक्त की। प्रभु महावीर ने उसे कहा-"जैसी आपकी आत्मा को सुख हो वैसा करो। पर शुभ कार्य में प्रमाद मत करो।" उधर उसकी पत्नी देवानंदा भगवान महावीर को देखकर रोमांचित होने लगी। उसके स्तनों से दूध की धारायें छूटने लगीं। आँखों से आनंद के अश्रु बहने लगे। सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र - १४५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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