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________________ सोचा-'किसी सेठ-साहूकार का घर होगा। भिक्षा शुद्ध मिल जायेगी।' पर यह घर तो वेश्या का था। वेश्या के भवन को वह सेठ का महल समझ गये थे। मुनि ने अपनी भाषा में "धर्मलाभ' कहा। अन्दर कोई सेठ नहीं था। यहाँ धर्म-कर्म का कोई नामोनिशान नहीं था। अन्दर से सजी हुई गणिका बाहर आई। उसने कहा-“यहाँ धर्मलाभ का काम नहीं है। यहाँ तो अर्थलाभ से कार्य पूर्ण होते हैं। जिसके पास धन-सम्पत्ति है, उसे यहाँ सब कुछ मिल सकता है, और जो दरिद्र और दीन है उसके लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है।' ___ मुनि का शरीर तपस्या के कारण सूख चुका था। उनकी कृश काया शरीर को देखकर वेश्या हँसने लगी। वेश्या को हँसते देख नन्दीषेण मुनि से अपना अपमान सहा न गया। उन्होंने सोचा-'इसने अभी मेरी शक्ति को पहचाना नहीं। मेरे तप के दिव्य प्रभाव से यह अनभिज्ञ है। समय आ गया है, मुझे इसको अपना प्रभाव दिखाना चाहिए।' ___ नन्दीषेण मुनि ने भूमि से एक तिनका उठाया। उसे तोड़ा तो तप प्रभाव से उसी वेश्या के सामने स्वर्ण-मुद्राओं की वर्षा होने लगी। मुद्राओं को इकट्ठा करते हुए नन्दीषेण ने वेश्या को वह मुद्राएँ अर्पित करते हुए कहा--"लो अर्थलाभ" कहकर उसी क्षण वेश्यालय से निकल पड़े। ___ अब वेश्या ने अपना दूसरा रूप प्रस्तुत करना शुरू किया, जिसे ज्ञानी त्रिया चरित्र कहते हैं। वेश्या ने सोचा-'यह तो सचमुच चमत्कारी सन्त है। अगर यह मेरे घर में रह जाये, तो मुझे किसी भी द्रव्य का अभाव नहीं रहेगा।' वेश्या शीघ्र सँभली और मुनि के पीछे-पीछे भागने लगी। वेश्या ने दीनता से कहा-“स्वामी ! मुझ गरीब अबला को किसके सहारे छोड़कर जा रहे हो? आपके बिना संसार में मेरा कोई नहीं। आप महान् दयालु हो। आपके बिना मेरा जीना बेकार है। आप मेरे यहाँ विराजें। अब मैं आपके बिना नहीं जी सकती।" वेश्या के हाव-भाव देख मुनि संयम से गिर गये। अब वह मुनि नहीं रहे थे। नन्दीषेण ने अपनी साधना को विस्मृत कर वेश्या द्वारा रखे गये सहवास प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। उन्होंने वेश्या के यहाँ रहने का फैसला इस शर्त पर किया- “मैं प्रतिदिन दस व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर प्रभु महावीर के पास प्रव्रज्या हेतु भेजूंगा। इसके बाद मैं भोजन किया करूँगा। जिस दिन नौ आदमी रहे, दसवें के रूप में मैं स्वयं साधु बन जाऊँगा।"२ नन्दीषेण मुनि अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे। यह क्रम वेश्या के भवन में ही चलता था। लम्बे समय तक उन्होंने रोजाना दस मनुष्यों को प्रतिबोधित कर साधु बनाया। एक दिन नौ पुरुष ही प्रतिबोधित हुए थे। नन्दीषण ने भोजन नहीं किया। दोपहर हुई। फिर शाम हो गई। दसवाँ पुरुष उन्हें उपलब्ध नहीं हुआ। वेश्या ने कहा-“स्वामी ! भोजन ठण्डा हो रहा है, आप भोजन कीजिए।" नन्दीषेण ने कहा-“मैं दसवें पुरुष को प्रतिबोधित किये बिना भोजन कैसे कर सकता हूँ ? इस प्रतिज्ञा को तुम जानती हो।" तभी वेश्या के मुख से अनायास निकल पड़ा कि अगर दसवाँ नहीं आता तो तुम स्वयं मुनि क्यों नहीं बन जाते?" नन्दीषेण के मन में लग गई। उन्होंने उसी क्षण उस वेश्यालय को छोड़ दिया और प्रभु महावीर की शरण में पुनः पहुंच गये। प्रभु महावीर से पुनः दीक्षा की याचना की। प्रभु महावीर ने नन्दीषेण को पुनः प्रव्रज्या प्रदान की। वह साधना में लग गये। नन्दीषेण गिरकर सँभले थे। उन्होंने लम्बे समय तक तपस्या की। अपने पूर्व कृत दोषों की आलोचना की। उग्र जप, तप किया, जिसके प्रभाव से वह अगले जन्म में देव बने। अभयकुमार ये राजा श्रेणिक के पुत्र भी थे और मंत्री भी थे। राजा श्रेणिक को अपने भाइयों के कारण कुछ समय जब अज्ञातवास में रहना पड़ा तो उसका सम्बन्ध एक वणिक पुत्री नन्दा से हुआ। उसी की सन्तान अभयकुमार थे। इनकी बुद्धि अलौकिक १४४ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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