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________________ तीर्थ स्थापना जब कोई भव्य जीव तीर्थंकर बनता है तब उसको अष्ट प्रातिहार्य, ३४ अतिशय, देवों द्वारा रचित समवसरण, ६४ इन्द्रों की सेवा हर समय प्राप्त होती है। इस प्रकार उस दिन वैशाख शुक्ल दशमी का दिन था। मध्यम पावा नगरी के महासेन उद्यान में साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की। ४,४११ ब्राह्मण मुनि बन चुके थे। आर्या चन्दनबाला तथा सैकड़ों महिलाएँ दीक्षित होकर साध्वी संघ में मिलीं। हजारों श्रावक व श्राविकाओं ने प्रभु महावीर की वाणी को सुनकर आत्म-कल्याण का मार्ग चुना। इस शिष्य-परिवार के साथ प्रभु महावीर राज्यगृह में पधारे। वहाँ राजा श्रेणिक राज्य करते थे। उनके अनेक रानियाँ व राजकुमार थे। सबसे छोटी रानी चेलना वैशाली गणराज्य के गणाध्यक्ष चेटक की पुत्री थी। वह श्रमणोपासिका थी। राजा श्रेणिक उस समय तक प्रभु महावीर का भक्त नहीं बना था। राजकुमारों में प्रमुख महावीर के भक्त राजकुमार अभय थे। ___ राजगृह का गुणशील चैत्य श्रमणों के आवास के लिए बहुत ही अनुकूल स्थान था। प्रभु महावीर के अधिक वर्षावास यहीं हुए। हजारों जीवों को मोक्ष का संदेश यहाँ से मिला। प्रभु महावीर के ११ गणधर भी यहाँ से मोक्ष पधारे। इसी स्थान पर श्वेताम्बर परम्परा अनुसार प्रभु महावीर ने देवों द्वारा निर्मित समवसरण में प्रथम उपदेश दिया। भगवान महावीर ने फरमाया-“अनादि अनंत संसार में भटकते हुए जीवों को मनुष्यत्व, धर्म श्रवण, सत्य श्रद्धा तथा संयम में पुरुषार्थ करना परम दुर्लभ है। मानव-भव दुर्लभ है। आत्मा की मुक्ति मनुष्य-भव में ही होती है अन्य योनियों में नहीं। देवभव पुण्य फल भोगने का स्थान है। नरक पाप का फल भोगने का स्थान है। तिर्यंच जीव को मोक्ष असम्भव है। मनुष्य को छोड़ तीनों गतियों के जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। __ मोक्ष के लिए देश, काल, जाति, रंग, नस्ल, लिंग का भेद करना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व ही असली पाप है, अज्ञानता का दूसरा नाम है। मिथ्यात्व को पहचानकर उसे छोड़ो, सम्यक्त्व को ग्रहण करो। ___अगर मनुष्य-जन्म कभी शुभ कर्मोदय से मिल भी जाए, तो सच्चा धर्म सुनना परम दुर्लभ है। यह संसार अनार्य, पापी, दुराचारी, अज्ञानियों से भरा पड़ा है। ऐसे में धर्म का उपदेश सुनना बहुत दुर्लभ है। अनार्य स्वयं को आर्य बताते हैं। दुर्जन सज्जन बने फिरते हैं। अनार्य तो धर्म सुन ही नहीं सकते, सभी आर्य भी धर्म सुनने के योग्य नहीं होते। इसका कारण है-प्रमाद, लोभ, भय, अहंकार, अज्ञान और मोह। ____ अन्तराय कर्म क्षीण हों, दर्शनावरणीय व ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हों तो जीव धर्म सुन सकता है। धर्म सुन भी ले तो सत्य धर्म पर श्रद्धा होना बहुत कठिन है। मिथ्या अहंकार तथा राग-द्वेष मनुष्य की श्रद्धा समाप्त करने में प्रमुख सहायक है। दूसरे मतों के बहकावे में आकर, चमत्कारों को देखकर-सुनकर अपने सत्य धर्म को छोड़कर जीव अज्ञानता में ज्ञानीपन मानता है। __ जिनका भव-भ्रमण कम रह गया है। अंतरंग तेज खुल गये हैं और आत्मिक सुख-प्राप्ति का समय मर्यादित हो गया है, उन्हीं योग्य प्राणियों के हृदय पर सत्य धर्म के प्रति श्रद्धा उमड़ती है। इतना कुछ प्राप्त हो जाने पर उस धर्म पर चलना परम दुर्लभ है। कई व्यक्ति सत्य को जानते हैं उस पर श्रद्धा भी करते हैं। उस मार्ग पर चलना उनके वश में नहीं होता। वे संयम मार्ग पर बढ़ने का प्रयत्न नहीं करते। प्रभु महावीर ने अपने प्रवचन में साधु धर्म व श्रावक धर्म का वर्णन किया। हम भी इसे संक्षेप में दे रहे हैं | १३४ १३४ - सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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