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पाहा
प्रभास-“हाँ महाराज ! मुझे यही संदेह है। क्योंकि मोक्ष का अर्थ कर्म से मुक्त होना है तो यह असंभव है; क्योंकि जीव और कर्म का संबंध अनादि है उसे अनंत होना चाहिये। जो अनादि है वह अनन्त भी है, जैसे-आत्मा। वेद में भी मोक्ष की कोई चर्चा नहीं है। शास्त्र में तो "जरामर्य व यद ग्निहोत्रेय"३४ इत्यादि वचनों से जीवन पर्यन्त के लिए अग्निहोत्र ही विधेय कर्म लिखा है। यदि वास्तव में मोक्ष होता तो उसकी सिद्धि का कोई अनुसरण भी बताया जाता।"
प्रभु महावीर--"प्रभास ! तुम्हारा यह कहना सही नहीं कि अनादि वस्तु अनंत होनी चाहिये। यह कोई शाश्वत नियम नहीं है। स्वर्ण खनिज पदार्थ अनादिकाल से मृतिका से संबंध होते हुए भी अग्नि के संयोग में निर्मल हो जाते हैं। इस प्रकार जीव भी अनादिकाल से कर्मफल से सम्बन्ध होते हुए; ज्ञान, दर्शन आदि उपकरणों की सहायता से मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
यह हो सकता है कि कर्मकाण्ड प्रधान वैदिक ऋचाओं में मोक्ष व उसके साधन का उल्लेख न हो परन्तु वेद के ही अन्तिम भाग, उपनिषदों में तो इसके स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं। ___"द्वे ब्राह्मणी वेदितव्ये परमपदं, तत्र परं, सत्यं ज्ञान अनन्तरं बह्म।"३५ इत्यादि वेद वाक्यों द्वारा वैदिक ऋषियों ने वहाँ अथवा अनन्त ब्रह्म के नाम से जिस तत्त्व का निर्देश किया है उसी को हम निर्वाण अथवा मुक्तावस्था कहते हैं। यही सिद्ध अवस्था है। जीवन पाने का सार है। आत्मा इस रूप में परमात्मा बन जाती है। जहाँ बंधन टूटते हैं वहाँ जीव ब्रह्मज्ञानी बन जाता है। केवलज्ञानी केवलज्ञान के बल से ४ कर्मों को तोड़ता है। ४ कर्म उसके मरण के समय छूटते हैं। शरीर का जन्म-मरण समाप्त हो जाता है।"
इस प्रकार प्रभास को मोक्ष तत्त्व के प्रति श्रद्धा हो गई। उसने समाधान पाते ही प्रभु महावीर से प्रव्रज्या स्वीकार कर ली।
इस प्रकार मध्यम पावा की इस धर्मसभा में एक ही दिन ४,४११ ब्राह्मणों ने निग्रंथ प्रव्रज्या को स्वीकार कर देवाधिदेव प्रभ महावीर के द्वारा प्रतिपादित श्रमण धर्म को स्वीकार किया। दिगम्बर जैन परम्परा अनुसार इन्द्रभूति की दीक्षा
दिगम्बर जैन शास्त्रों में गणधर इन्द्रभूति का वैसा प्रकरण नहीं मिलता, जैसा श्वेताम्बरों में मिलता है। वहाँ एक दूसरी तरह की घटना का वर्णन मिलता है। ___ ऋजुबालुका नदी के तट पर केवलज्ञान प्राप्त कर प्रभु महावीर ६६ दिन मौन रहे। उनके सात प्रतिहार्य तो प्रकट हो गये पर आठवाँ दिव्य ध्वनि वाला प्रतिहार्य प्रकट नहीं हो रहा था। प्रभु महावीर घूमते-घूमते केवलज्ञानावस्था में राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर पधारे। उधर इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से जाना कि प्रभु महावीर की दिव्य ध्वनि क्यों प्रकट नहीं हो रही है ? उसका कारण यह था कि अभी तक जिनधर्म सुनने वाला कोई सुपात्र पैदा नहीं हुआ था। ___ इन्द्र ने वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाया और इन्द्रभूति की पाठशाला में आ गया। उसने इन्द्रभूति से पूछा- “ब्राह्मण ! मेरे गुरु ने मुझे एक गाथा सिखाई है उसका मैं अर्थ समझ नहीं पा रहा। आपकी प्रतिष्ठा सुनकर आया हूँ। कृपया मुझे इस गाथा का अर्थ बता दें।"
इन्द्रभूति गौतम ने मायाधारी इन्द्र से कहा-“मैं आपके हर प्रश्न का उत्तर दे सकता हूँ, अगर आप मेरे शिष्य बन जायें।"
इन्द्र तो चाहता यही था। वह किसी न किसी बहाने इन्द्रभूति को प्रभु महावीर के चरणों में दीक्षित कराना चाहता
था।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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