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________________ (२) इसी प्रकार पाप को अकेला मानने से जब पाप है दुःख में वृद्धि होती है पर जब पाप छँटता है तब पुण्य के प्रभाव से सुख अनुभव किया जा सकता है पाप का पूर्ण क्षय मोक्ष है । १९ (३) पुण्य और पाप अलग-अलग न होकर एक साधारण वस्तु के भेद हैं। वस्तु में पुण्य की मात्रा अधिक हो तो पुण्य कहलाता है और पाप की मात्रा बढ़ने से पाप कहलाता है। (४) पुण्य और पाप दोनों स्वतंत्र हैं । सुख का कारण पुण्य और दुःख का कारण पाप 1 (५) इस संसार में पुण्य और पाप जैसी कोई वस्तु नहीं है, समस्त भव प्रपंच स्वभाव में होता है। ये जो पाँच विकल्प संसार में पाये जाते हैं उनमें से चतुर्थ विकल्प सही है । पुण्य-पाप दोनों स्वतन्त्र हैं । सुख-दुः ख का कारण हैं। स्वभाववाद आदि युक्ति से बाधित है। दुःख की प्रकृष्टता उसके अनुरूप कर्म के प्रकर्ष से प्रकट हो है जैसे सुख के प्रकृष्ट अनुभव का आधार पुण्य प्रकर्ष है वैसे ही दुःख के प्रकृष्ट अनुभव का आधार पाप प्रकर्ष है । इसलिए दुखानुभव का कारण पुण्य का उत्कर्ष नहीं अपितु पाप का प्रकर्ष है । इस प्रकार अचलभ्राता का पुण्य-पाप सम्बन्धी सारा संशय जाता रहा। वह भी अपने ३०० विद्यार्थी शिष्यों के साथ तीर्थंकर प्रभु महावीर की शरण में आया । निर्ग्रर्थं प्रवचन सुना । प्रभु महावीर से दीक्षा की प्रार्थना की। प्रभु महावीर के सान्निध्य में वह भी अन्य मुनियों के साथ बैठ गया । अब दो पुरोहित ही रह गये थे - मेतार्य व प्रभास । दोनों अपने शिष्यों के साथ प्रभु महावीर के पास आए । सर्वप्रथम तार्य स्वामी पधारे। तार्य का संशय निवारण व प्रव्रज्या अचलभ्राता की दीक्षा के बाद मेतार्य भी अपने ३०० शिष्य परिवार के साथ प्रभु महावीर के सामने आये । प्रभु महावीर ने उन्हें देखते ही कहा- "महानुभाव ! तुम्हारे मन में परलोक के प्रति संशय है। इसका कारण 'विज्ञानघन' आदि श्रुति वाक्य है। यदि भूत परिणाम ही चैतन्य हो तो उनके विनाश के साथ ही उसका विनाश निश्चित है । मेतार्य ! तुम्हारा यह मानना है कि मद्यांग और मद की तरह भूत और चैतन्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है इसलिए परलोक मानना जरूरी नहीं है । जब भूत संयोग के नाश से चेतना का नाश हो जाता है तो परलोक को मानने की जरूरत नहीं, इस तरह सर्वव्यापी एक ही आत्मा का अस्तित्त्व मानने पर भी परलोक की सिद्धि नहीं हो सकती । मैं तुम्हें पहले बता चुका हूँ भूत, इन्द्रिय आदि से पृथक् स्वरूप आत्मा का धर्म चैतन्य है । इस बात की सिद्धि मैं पहले कर चुका हूँ। इसलिए आत्मा को भी स्वतन्त्र द्रव्य मानना चाहिये । इस तरह अनेक आत्मा का अस्तित्त्व भी पहले सिद्ध किया जा चुका है। इसलिए लोकालोक से अलग देव आदि परलोक का सद्भाव भी मौर्यपुत्र और अकम्पित की चर्चा में बता चुका हूँ।३३ इसलिए परलोक का सद्भाव तर्कसंगत है। आत्मा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, स्वभावयुक्त है। इसलिए मृत्यु के बाद उसका सद्भाव सिद्ध है ।" संशय दूर होते ही मेतार्य भी अपने शिष्य परिवार सहित दीक्षित हो गया । अब अन्तिम पुरोहित प्रभास अपने विद्यार्थी शिष्यों के साथ यज्ञशाला से चला था । उसे प्रभु महावीर पर श्रद्धा होने लगी थी। अतः वह भी प्रभु महावीर के समवसरण में अपने ३०० शिष्यों सहित पहुँचा । प्रभास का संशय निवारण व प्रव्रज्या आर्य प्रभास को देखते ही प्रभु महावीर ने उसके मन की बात कह डाली - " प्रभास ! तुम्हारे मन में मोक्ष के प्रति संशय है ?" १३० Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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