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________________ अकम्पित-"फिर इन दोनों बातों में हम कैसे समन्वय कर सकते हैं ?" प्रभु महावीर-“महानुभाव ! इन दोनों बातों में विरोधाभास नहीं है, तुम्हारे समझने में विरोधाभास है। प्रथम शास्त्र वाक्य नरक गति से निकलने वाले जीवों को लक्ष्य करके कहा गया है कि नारक मरकर नरक में जन्म नहीं लेता। इसी भाव को आगे रखकर प्रथम वाक्य में नरक में नारकी की उत्पत्ति का निषेध है अन्य जीवों की उत्पत्ति का नहीं।" ___ इस प्रकार अकम्पित के नरक संबंधी प्रश्न का भगवान महावीर ने बड़ी सरलता, सहजता व सुन्दरता से उत्तर दिया। जैसे सुख के भोगने का उत्कृष्ट स्थान स्वर्ग है वैसे दुःख के भोगने का उत्कृष्ट स्थान नरक है। पशु व मानव-जीवन के सुख-दुःख दोनों के सुख-दुःख के सामने तुच्छ है। प्रभु महावीर से समाधान पाकर अकम्पित व उसके विद्यार्थी शिष्यों ने प्रभु महावीर से निग्रंथ प्रवचन सुने और फिर श्रद्धा से प्रव्रज्या स्वीकार की। ____ अकम्पित के मुनि बन जाने के बाद उसी यज्ञ के एक और पुरोहित अचलभ्राता अपने शिष्य-परिवार के साथ प्रभु महावीर के सामने आये। अचलभ्राता का संशय व प्रव्रज्या ग्रहण अचलभ्राता को देखते ही प्रभु महावीर ने अचलभ्राता के मन की बात कह डाली-“हे पंडित ! क्या तुम्हें पुण्य-पाप के अस्तित्त्व के बारे में सशंय है?' अचलभ्राता-“जी हाँ ! मुझे यही संशय है क्योंकि एक ओर तो हमारे शास्त्र में ___ "पुरुष एवेदं कित सर्व यद् भूतं यन्न भाव्यम ! उतामृत त्वस्पेशवती यदेन्नं नातिरोहति।" इत्यादि “मुक्तिवाद'' का प्रतिपादन किया गया है। दूसरी ओर "पुण्य : पुण्येन पाप पापेन कर्मणा।" आदि वेद वाक्य पुण्य-पाप का अस्तित्त्व सिद्ध करते हैं। इस विरोधाभास में कठिन हो जाता कि पुण्य-पाप कोई वास्तविक पदार्थ है या कल्पना?'' प्रभु महावीर-“हे महानुभाव ! “पुरुष एवेदं” इत्यादि वेद वाक्य अर्थवाद मात्र हैं। इनमें पुरुष का महत्त्व स्थापित होता है न कि अन्य तत्त्वों का अभाव सिद्ध होता है। ___"पुण्यः पुण्येन" इत्यादि वाक्य भी कोई औपचारिक वचन नहीं, सैद्धान्तिक वचन है। पूर्वजन्म और कर्मतत्त्व का अस्तित्त्व इसमें गर्भित है जो तर्क सम्मत और व्यावहारिक बात है। बाकी पुण्य-पाप के बारे में निम्न विकल्प पाये जाते (१) केवल पुण्य है पाप नहीं। (२) केवल पाप ही है पुण्य नहीं। (३) पुण्य और पाप एक ही है भिन्न नहीं। (४) पुण्य और पाप भिन्न-भिन्न हैं। मैं इस संदर्भ में इतना ही कहता हूँ (१) केवल पुण्य है पाप का सर्वथा अभाव है। पुण्य की ज्यों-ज्यों अभिवृद्धि होती है वैसे-वैसे सुख की वृद्धि होती है। पुण्य की ज्यों-ज्यों हानि होती है त्यों-त्यों सुख हरता है। पुण्य का सर्वथा क्षय होने पर मोक्ष होता है। सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र - १२९ १२९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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