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सुधर्मा-“हाँ प्रभु ! मैंने वह विपरीत वाक्य भी पढ़ा है-"शृगालो वै एष जायते य सपुरीषो दह्यते।" इस वाक्य में मनुष्यपन छोड़ अगले भव में शृगाल होना लिखा है। पर मुझे प्रथम श्रुति वाक्य पर ज्यादा श्रद्धा है। क्योंकि यह एक अटल नियम है कि कार्य हमेशा कारण अनुरूप होता है। गेहूँ से गेहूँ की ही उत्पत्ति होती है, जौ की नहीं। इस तरह मनुष्य आदि प्राणी मरकर पुनः मनुष्य ही बनते हैं किसी अन्य योनि में नहीं पैदा होते।" ___ आर्य सुधर्मा के तर्क को प्रभु महावीर ने काटते हुए समाधान किया-“महानुभाव सुधर्मा ! कार्य कारण के समान ही होता है इसलिए गेहूँ से गेहूँ और जौ से जौ की उत्पत्ति होती है, पर-भव की नहीं। यह बात सत्य है पर इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि उसी कारण रूप गेहूँ जीव ने उससे उत्पन्न होने वाले गेहूँ के दानों में जन्म लिया है। कारण और कार्य रूप गेहूँ के दानों में केवल शारीरिक कार्य-कारण भाव होता है, आत्मिक नहीं।
इसी प्रकार मनुष्य तथा तिर्यंच आदि में भी शारीरिक कार्य-कारण भाव होता है। मनुष्य के मनुष्य देहधारी संतान होती है, पशु के पशु देहधारी। यदि यह नियम न होता, तो मनुष्य से पशु उत्पन्न हो जाता और पशु मनुष्यों को जन्म देते। सो इसका कारण शरीर है आत्मा नहीं।
आर्य सुधर्मा ! मेरी बात ध्यान से सुनो। हर जीव-जंतु का जीव (आत्मा) जुदा है और शरीर जुदा है। पूर्व शरीर उत्तर शरीर का कारण तो हो सकता है पर उत्तर भव का नहीं। ___ भव की प्राप्ति पूर्व कृत्य शुभ-अशुभ कर्मों का समूह है। जो जीव भले-बुरे कर्म करता है उसी प्रकार से भले-बुरे कर्मों से अपनी आत्मा को बाँध लेता है जिसे मैं कर्मबंध कहता हूँ। ___ उसी कर्म के हिसाब से अच्छी-बुरी गति बाँधता है। उसका पूर्वभव का शरीर इस प्रणाली पर कोई असर नहीं डालता।
कार्य-कारण के समान ही होता है यह कोई एकान्त नियम नहीं है। शृंग से भी शर नामक वनस्पति उत्पन्न होती है। उसी पर यदि सरसों का लेप किया जाए तो फिर उसी में से एक विशेष प्रकार की घास उत्पन्न होती है। गाय, भेड़, बकरी के केशों से ऊन उत्पन्न होती है। इसी तरह विभिन्न प्रकार के द्रव्यों के संयोग से विलक्षण वनस्पति की उत्पत्ति का वर्णन वृक्षायुर्वेद में है। इसलिये यह मानना चाहिये कि कार्य-कारण से विलक्षण भी उत्पन्न हो सकता है।१७
इस भव का मनुष्य मन, वचन द्वारा अशुभ प्रवृत्तियों से अशुभ कर्म बाँध लेता है वह मरकर नारकी व पशु बनता है। इस तरह से इस भव का पश अशुभ कर्मों से फिर तिर्यंच और नारक भी हो सकता है। वह तिर्यंच पश शभ कर्मों द्वारा मनुष्य और देव तक हो सकता है।
मेरी बातों का सार यह है कि शुभ कर्म जीव को शुभ गति देने वाले हैं। अशुभ कर्म अशुभ गति देने वाले हैं।" सुधर्मा-“आर्य ! अगर कर्म के अभाव से यदि भव मान लें तो क्या आपत्ति है?"
प्रभु महावीर-“महानुभाव ! इस प्रकार की स्थिति में भव का नाश भी निष्कारण मानना होगा और मोक्ष के लिए तपस्या आदि तप-जप, अनुष्ठान बेकार सिद्ध होंगे। इस कारण तुम्हारा सिद्धांत अपने आप में ठीक नहीं है। इस तरह कर्म के अभाव से अनेक दोष उत्पन्न हैं।'
सुधर्मा-“आर्य ! कर्म के अभाव में स्वभाव से ही परभाव मान लें तो क्या दोष है ?" प्रभु महावीर-“महानुभाव ! स्वभाव क्या है ? क्या वह कोई वस्तु है ? या निष्कारणता है ? या वस्तु धर्म है ?
वस्तु मानने पर उसकी उपलब्धि होनी चाहिये। पर आकाश कुसुम के समान उसकी उपलब्धि नहीं होती, वह वस्तु नहीं है। यदि अनुपलब्ध होने पर भी स्वभाव का अस्तित्त्व माना जाए तो अनुपलब्ध होने पर कर्म का अस्तित्त्व मानने में क्या आपत्ति है?
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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