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________________ दूसरी बात-स्वभाव की विसदृशता आदि की सिद्धि के लिए हेतु प्राप्त नहीं होता, जिससे जगत् वैचित्र्य सिद्ध हो सके। स्वभाव की निष्कारणता में भी बहुत से दोषों की संभावना है। वस्तु धर्म में भी स्वभाव नहीं माना जा सकता। चूँकि उसमें भी वैसे दृश्य के लिए किसी प्रकार का स्थान नहीं रहता। स्वभाव को पुद्गल रूप मानकर वैसे दृश्य की सिद्धि की जाए तो वह कर्म रूप में ही सिद्ध होगा। इस प्रकार सुधर्मा ! तुम्हारी सभी मान्यताएँ शंकाग्रस्त है। तुम्हारा यह मानना इसी बात का प्रतीक है क्योंकि श्रुति में परस्पर वाक्य तुम्हें मिले। पर वास्तविकता से इन श्रुति वाक्यों का कुछ लेना-देना नहीं है।' ___ आर्य सुधर्मा भी विद्यार्थी-परिवार सहित प्रभु महावीर के शिष्य बन गये। पर अभी तो पहले दिन का पहला उपदेश था। चर्चाएँ चल रही थीं। इसके बाद आर्य मंडिक यज्ञशाला से सीधे प्रभु महावीर के चरणों में पहुंचे। उनका भी शिष्यपरिवार साथ था। मंडिक स्वामी की शंका व प्रव्रज्या ___ सुधर्मा के पश्चात् ही मंडिक स्वामी प्रभु महावीर के सामने आ गये। उन्हें देखते ही महावीर बोले-“आर्य मंडिक ! क्या तुम्हें आत्मा के बंध-मोक्ष के विषय में शंका है ?" मंडिक-“हे आर्य ! आप सत्य कहते हो। मेरी ऐसी मान्यता है कि आत्मा एक स्वच्छ-सा पदार्थ है। इसका कर्मबंध और नये-नये रूपों में जन्म लेकर भटकना मेरे दिमाग में नहीं बैठता। मेरी बुद्धि इस सिद्धांत को मानने को तैयार नहीं है। फिर शास्त्र में भी आत्मा को त्रिगुणातीत, अबद्ध और विभु बताया गया है। श्रुति वाक्य है-“स एष विगुणे विमूर्त वध्यते, संसक्ति व न मुच्यते मोचयति वा, नवा एष बाह्याभ्यन्तर न वेद।" अब आप ही समझायें कि जो अवगुण (सत्व, रज, तम) बाह्य तथा आभ्यन्तर (शारीरिक व मानसिक) सुख-दुः ख के प्रभावों से परे है उसे कर्मबद्ध होगा? और जिसका बन्धन है उसका छूटने की बात बेकार है। इस प्रकार जो आबद्ध है, वह भव-भ्रमण कैसे करेगा?' प्रभु महावीर-“इस श्रुति वाक्य में आत्म-स्वरूप का जो वर्णन है वह कर्म समाप्त करके गई सिद्ध आत्मा का है। सांसारिक आत्माओं का नहीं है।' मंडिक स्वामी ने पुनः प्रश्न किया-"सिद्ध और संसारी आत्माओं में क्या भिन्नता है ?'' प्रभु महावीर-“यूँ तो आत्म-स्वरूप से सभी आत्माएँ एक-सी हैं परन्तु उपाधि भेद से भिन्नता मानी गई है। जो आत्माएँ सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र के माध्यम से समस्त कर्म का नाश कर देती हैं, जिनका जन्ममरण समाप्त हो गया है, जो त्रिकाल पूज्य हैं, निराकार हैं, स्वयंबुद्ध, अविनाशी हैं वह सिद्धात्माएँ हैं। ___ जो कर्मबंधन में जकड़ी होने के कारण जन्म-मरण करती हैं। बुरे या अच्छे कर्मों के अनुसार जिन्हें बुरी या अच्छी योनि मिलती है वह संसारी आत्माएँ हैं। उक्त वेद वाक्य में जो विभू आत्मा का निरूपण किया गया है वह कर्म-मुक्त सिद्धात्माओं पर ही लागू होता है क्योंकि उन्हीं मुक्त आत्माओं में यह विशेषताएँ पाई जाती हैं।" ___ मंडिक बहुत अच्छा दार्शनिक व शास्त्रार्थ करने में कुशल थे। उन्होंने प्रभु महावीर से पुनः प्रश्न किया-“सिद्ध और संसारी दो तरह की आत्माओं की कल्पना करने की क्या जरूरत है ? हमें सभी आत्माओं को सिद्ध स्वरूपी मानने में क्या दोष है?' प्रभु महावीर-“हे आर्य ! इस तरह मानने से संसारी आत्माओं को कर्म द्वारा प्राप्त सुख-दुःख के अनुभव की जो प्राप्ति होती है वह बेकार सिद्ध हो जायेगी। हम कहते हैं. “मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ।'' इन व्यवहार वाक्यों का आधार सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र रेत्र १२५ १२५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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