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लता अपना आश्रय प्राप्त करने की दृष्टि से मानव के समान वृक्ष की ओर बढ़ती है। शमी आदि में निद्रा, प्रबोध, संकोच के लक्षण पाये जाते हैं। बबूल शब्द का, अशोक रूप का, कुरूनक गंध का, विरहंक रस का, चम्पक स्पर्श का उपभोग करते हुये दिखाई देते हैं।
जल भी सचेतन है। पृथ्वी का उत्खनन करने से स्वाभाविक रूप से जल निकलता है, वह मेढ़क के समान है। चूंकि मेढ़क भी ऐसे ही निकलते हैं। और मत्स्य के समान स्वाभाविक रूप से आकाश से गिरने के कारण जल को सचेतन मानना चाहिये। गाय बिना किसी प्रेरणा से अनियमित रूप से तिर्यक् गमन करती है, वैसे ही वायु भी है। इसलिये वह सजीव है। अग्नि सजीव है। उसे मनुष्य में आहार आदि से वृद्धि और विकार दिखाई देता है। वैसे ही आग में भी काष्ठ आहार से वृद्धि और विकार दिखाई देते हैं।१६
सो पाँच भूत अचेतन नहीं हैं। इसलिए क्षणिकवाद का सिद्धान्त स्वीकार करने योग्य नहीं है। क्योंकि संसार में कुछ भी इस सिद्धान्त में नहीं आता। सांसारिक जीवों का नियम है कि क्षणिक सुखों को, क्षणिक मानकर इसमें न फँसें आत्महित की चिंता करें।
इसके बाद प्रभु महावीर ने आर्य व्यक्त को जड़-चेतन का स्वरूप समझाया। आर्य व्यक्त भी प्रभु महावीर से प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गये। उनके साथ ५०० शिष्य भी साधु बने।
आर्य व्यक्त भी अपने शिष्यों सहित प्रभु महावीर की शरण ग्रहण कर चुके थे। अब आये जैन इतिहास व शास्त्रों के मुख्य संदेशवाहक आर्य सुधर्मा।
आर्य सुधर्मा का नाम ४५ आगमों में शुरू में ही उपलब्ध हो जाता है। इसका मुख्य कारण है कि वह भगवान महावीर के दीर्घकाल तक शिष्य रहे। उन्होंने अपने शिष्य अंतिम केवली आर्य जम्बू को वही सुनाया, जो उन्होंने अपने प्रभु महावीर के श्रीमुख से सुना था। यही गुरु-शिष्य संवाद श्वेताम्बर जैन आगम है। आप दीर्घायु थे। लम्बे समय तक प्रभु महावीर को बहुत निकट से देखा था इसी कारण आपने 'वीरत्थुई' की स्वतन्त्र रचना की। आप संसार के पहले कवि थे। आपकी यह रचना सूत्रकृतांग में है। डॉ. गेटे के अनुसार यह संसार की पहली छन्द, अलंकार व कविता के सभी गुणों से संपूर्ण है। सुधर्मा जैसा विद्वान् प्रभु महावीर के आगे कैसे समर्पित हुआ। सुधर्मा भी सोमिलाचार्य की यज्ञशाला में अपने शिष्यों के साथ यज्ञ में संलग्न थे। आर्य सुधर्मा की शंका व प्रव्रज्या __ वह भी प्रभु महावीर के समक्ष अपने शिष्य-परिवार सहित आये। प्रभु महावीर ने सुधर्मा को देखते ही कहा"आर्य सुधर्मा ! क्या तुम मानते हो कि सब प्राणी मरकर अपनी ही योनि में पैदा होते हैं। जो इस भव में है व परभव में भी ऐसा रहेगा।"
आर्य सुधर्मा प्रभु महावीर की सर्वज्ञता की बात सुन चुके थे। अब तो वह यह प्रश्न प्रभु महावीर की परीक्षा हेतु नहीं, संशय मिटाने हेतु पूछ रहे थे। अब श्रद्धा आ चुकी थी। तर्क-वितर्क समवसरण में आते ही समाप्त हो चुके थे। बड़े श्रद्धाभाव से आर्य सुधर्मा ने कहा-“हा आर्य, वेद-वाक्य भी मेरी बात का समर्थन करते हैं
__"पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुतै पशवः पशुत्वम्।" अर्थात् पुरुष पुरुषत्व को पाता है पशु पशुयोनि पाता है।" प्रभु महावीर-"आर्य ! तुम एक वाक्य में ही उलझ गये हो। इसके विपरीत भी श्रुति वाक्य उपलब्ध होता है।"
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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