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________________ उधर पावा की यज्ञशाला में यज्ञ रुक गया। सभी उन तीन वेद-विद्वान् ब्राह्मणों की चिंता करने लगे। इन्द्रभूति, अग्निभूति व वायुभूति तीनों पंडित अपने शिष्यों के परिवार सहित प्रभु महावीर के शिष्य बन चुके थे। यज्ञशाला के हर सदस्य को अब देवताओं के समवसरण में जाने का रहस्य समझ आ रहा था। उन्हें पता चल चुका था कि उस वर्द्धमान को अवश्य ही सर्वज्ञता हासिल हो गई है इसीलिये वह हमारे विद्वानों से शास्त्रार्थ करने में सक्षम है। ___ बाकी चार विद्वानों ने भी सोचा-'चलो ! हम भी चलें। उस व्यक्ति को देखें, परखें। अगर वह योग्य होगा, तो हमारे मन की बातें बता देगा। हमारे अंदर वर्षों से पल रहे संशय का निवारण हो जायेगा।" आर्य व्यक्त की शंका और प्रव्रज्या वायुभूति के दीक्षित होते ही आर्य व्यक्त अपने शिष्यों सहित प्रभु महावीर के समवसरण में उपस्थित हुए। प्रभु महावीर ने उनको संबोधित करते हुए कहा-“व्यक्त ! तुम्हारे मन में संशय है कि भूत है या नहीं। तुम्हें ब्रह्मा के सिवाय सारे पदार्थों की वास्तविकता पर संशय है? व्यक्त ! तुम्हारे मन में यह धारणा है कि प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाले ये सभी भूत स्वप्न के समान हैं और जीव, पुण्य, पाप आदि परोक्ष पदार्थ माया के समान हैं। इस तरह सम्पूर्ण संसार यथार्थ में शून्य-सा है।" प्रभु महावीर से अपनी संशय भरी बातें सुनकर आर्य व्यक्त ने स्वीकृति दी। फिर खुलकर प्रभु महावीर की बातें व अपनी संशय का समाधान पाने लगे। प्रभु महावीर ने आगे कहा-"महानभाव ! स्वप्नोपम वै इत्यादि वेद वाक्य को तूने ठीक रूप में नहीं समझा। सब कुछ स्वभावतुल्य होने का अर्थ यह नहीं कि ब्रह्म के अतिरिक्त कोई सत् पदार्थ नहीं। ___संशय की उत्पत्ति बिना ज्ञेय के संभव नहीं। इसलिए ज्ञेय है तो संशय उत्पन्न किस प्रकार होगा? सब कुछ शून्य होने पर भी संशय रहता है, यह कहना उचित नहीं। जो स्वप्न में संदेह होता है वह भी पुर्वानुभूत वस्तु के स्मरण से ही होता है। इसलिए सभी वस्तुओं का सर्वथा अभाव हो तो स्वप्न में संशय न हो। स्वप्न के कारण ये हैं-(१) अनुभूत अर्थ-स्नानादि, (२) दृष्ट अर्थ-हाथी, घोड़े, (३) चिन्तित अर्थ प्रियतम आदि, (४) श्रुत अर्थ-स्वर्ग, नरक आदि, (५) प्रकृति विकार-वात, पित्त आदि, (६) अनुकूल-प्रतिकूल वेदना, (७) सजलप्रदेश, (८) पुण्य और पाप। इसलिए स्वप्न भी भावरूप हैं। चूँकि घट विज्ञान आदि के समान वह विज्ञान रूप है या स्वप्न स्वभाव रूप है। क्योंकि वह अपने कारणों से उत्पन्न होता है। जैसे घट आदि अपने कारणों से उत्पन्न होता है। __इस तरह हमें पृथ्वी, जल, अग्नि आदि प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले भूतों पर संदेह नहीं करना चाहिये। वायु, आकाश भी अवश्य है। स्पर्श आदि गुणों का कोई गुणी अवश्य होना चाहिये। चूँकि वह गुण है। जैसे सब गुण का गुणी घट है। स्पर्श आदि गणों का जो गणी है वह वाय है। इन सबका आधार भी कोई न कोई जरूर होना मूर्त हैं। जो मूर्त होता है उसका कोई आकार होता है। जैसे पानी का आधार घट होता है, पृथ्वी का आधार आकाश है। ___ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु सचेतन जीव हैं उनके जीव लक्षण स्पष्ट दिखाई देते हैं। आकाश अमूर्त है क्योंकि यह जीवों का आधार है, यह जीव तत्त्व नहीं है। भूत पदार्थों में जीवन है। इनका अपना भोजन है। पृथ्वी सचेतन है। चूँकि उससे जन्म, जरा, जीवन, मरण, क्षत-संरोहण, आहार, दोहद, रोग, चिकित्सा आदि जीव के लक्षण पाये जाते हैं। लाजवंती क्षद्र जीव की तरह स्पर्श से संकचित हो जाती है। ४ तत्त्व १२२ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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