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दिखाई देने वाले जीवों की प्रवृत्तियों को देखो। सब अपने अनुकूल वंदनीय की ओर प्रवृत्त और प्रतिकूल वंदनीय निवृत्त होते हैं । सब अनिष्ट से बचना चाहते हैं। क्या इससे सिद्ध नहीं होता कि यह चाहने वाली शक्ति, जो अदृश्य है, क्या है ? जो भले-बुरे का विचार करती है। अवश्य ही उस नियामक शक्ति का उद्गम स्थल शरीर से भिन्न है और वही क्रियावादियों की आत्मा है। "मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैंने खाया, मैंने अमुक कार्य किया इत्यादि वाक्य "मैं" शब्द सेतो अपना सूचन होता है वह वास्तव में शरीर नहीं है। हाँ यह स्वभाव शरीराश्रित आत्मा है । मृत शरीर में इस प्रकार की कोई भी चेष्टा नहीं होती है । मृत शरीर पर कितनी कीमती औषधियों के प्रयोग किए जायें, क्या वह जिंदा होगा ? क्या मृत शरीर का घाव ठीक होगा ? क्या वह बात करेगा ? जिस शक्ति से जीवन शरीर का योग ठीक होता है, इन्द्रियाँ कार्यरत हैं वह शक्ति आत्मा है और इन्द्रियों से अलग है।
प्रभु महावीर ने पुनः वायुभूति से पूछा - "वायुभूति ! इस संसार की विचित्रता की ओर देखो। कोई सुखी है, कोई दुः खी है, कोई धनवान है, कोई निर्धन है, कोई स्वामी है, कोई सेवक है। इन विविधताओं का कारण तुम क्या मानते हो ?" वायुभूति - "भंते ! मैं तो इनका कारण स्वभाव को मानता हूँ ।"
प्रभु महावीर - " किसका स्वभाव ?”
वायुभूति - "पदार्थों का ।"
प्रभु महावीर - "यदि तुम्हारी मान्यतानुसार संसार के भूतों के सिवा कोई पदार्थ नहीं है, तब तो इसका कारण तर्कसंगत नहीं है।
'भूत' जड़ पदार्थ है । इन जड़ों में ऐसी कौन-सी नियामक शक्ति है, जो संसार की विभिन्नताओं को प्रकट करे। भले ही आग में जलने - जलाने की शक्ति है। पर वह स्वयं नहीं जल सकती । इस तरह भूतों में भले ही सब कुछ करने की शक्ति हो, पर वह स्वयं कुछ नहीं कर सकते। इनका कोई नियोजक चेतन होगा, तभी ये संसार की विचित्रता का कारण हो सकेंगे। अतः भूतों में विलक्षण चेतन मानना पड़ेगा।
के आत्मा का अस्तित्त्व मान लेने पर भी संसार की विविधता सिद्ध नहीं हो सकती, जब तक कि चेतन और जड़ बीच में कोई विशिष्ट संबंध न माना जाये। क्योंकि जड़ से निर्लेप रहता हुआ चेतन जड़ पदार्थ का कोई नियमन अथवा उपयोग नहीं कर सकता । मिट्टी का स्पर्श न करने वाला कुम्हार मिट्टी के बर्तन नहीं बना सकता।"
वायुभूति - " तब क्या कुम्हार की तरह चेतन भी जड़ पदार्थों में इस संसार की रचना करता है ?" वायुभूति ने एक नया प्रश्न पुनः खड़ा कर दिया। प्रभु महावीर ने बड़ी सरलता से इसका समाधान किया।
प्रभु महावीर - "मेरा अभिप्राय यह नहीं है जैसा तुम समझ रहे हो । कुम्हार की तरह कोई चेतन शक्ति संसार की रचना नहीं करती। मेरे कहने का भाव यह है
"इस जगत् में चेतन और जड़ दो शक्तियाँ काम करती हैं। इन दो शक्तियों के बीच वह संबंध है जो विजातीय दो पदार्थों के बीच हो सकता है। चेतन, जिसे हम आत्मा कहते हैं और जड़, जिसे हम कर्म कहते हैं । अनादिकाल से दूध और घृत की तरह एक-दूसरे में मिले हुए हैं। दूध को देखते ही घृत का अनुमान हो जाता है। इसी प्रकार सचेष्ट शरीर को देखते आत्मा का अनुमान करते हैं। चेतन में लिप्त कर्माणुओं से संसार में यह विचित्रता उत्पन्न होती है। जो चेतन शुभ कर्मों में लिप्त होता है वह संसार में अच्छी स्थिति पाता है। जो अशुभ कर्म अणुओं में लिप्त होता है वह बुरी स्थिति पाता है।
इस प्रकार संसार में देखी जाने वाली विभिन्नताओं का कारण संसारी जीवों और उनके शुभ-अशुभ कर्म हैं। केवल भूतों का स्वभाव नहीं ।
वायुभूति पर चार्वाक का भी कुछ असर था । इस लम्बी धर्मचर्चा से वायुभूति का संशय दूर हो गया। उन्होंने भी अपने दोनों भ्राताओं का अनुकरण करते हुए प्रव्रज्या ग्रहण की। उनके ५०० शिष्यों ने भी साधु-जीवन ग्रहण किया ।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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