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________________ विषयक ज्ञान-पर्याय कहते हैं। जब वही पुरुष घर के पश्चात् पटादि अन्य पदार्थों को देखेगा तब उसे पटादि का ज्ञान होगा और पूर्वकालीन ज्ञान तिरोहित हो जायेगा। अन्यान्य पदार्थ-विषयक ज्ञान के पर्याय ही विज्ञानघन (विविध पर्याय का पिण्ड) है, जो भूतों से उत्पन्न होते हैं। यहाँ भूत शब्द का अर्थ पृथ्वी आदि पंचभूत नहीं है। यहाँ इसका अर्थ प्रमेय है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ही नहीं परन्तु समस्त जड़-चेतन को ज्ञेय (जानने योग्य) पदार्थ है। सब ज्ञेय पदार्थ आत्मा में अपने स्वरूप में भासमान होते दिखाई देते हैं। घट-घट रूप में भासता (अनुभव) है, पट-पट रूप में भासता है। ये भिन्न-भिन्न प्रतिभास ही ज्ञान-पर्याय है। ज्ञान और ज्ञानी (आत्मा) ये कथंचित् अभेद होने के कारण भूतों से अर्थात् भिन्न-भिन्न ज्ञेयों से विज्ञानघन अर्थात ज्ञान-पर्याय का उत्पन्न होना और उत्तरकाल में उनका तिरोहित ___ 'न प्रेत्य संज्ञास्ति' का अर्थ-'परलोक की संज्ञा नहीं है।' ऐसा अर्थ करना गलत है। वास्तव में इसका अर्थ है 'पूर्व पर्याय का उपयोग नहीं है। जब पुरुष में नये-नये ज्ञान-पर्याय उत्पन्न होते हैं तो पूर्वकालिक उपयोग तिरोहित हो जाने से उसकी स्मृति पर स्फुटित नहीं होते। इसी अर्थ को लक्ष्य रखकर न प्रेत्य संज्ञास्ति कहा गया है।" इन्द्रभूति ने ज्यों ही इस वेद सूक्ति के अर्थ के वास्तविक अर्थ को सुना, उनका अज्ञान-अंधकार मिट गया। दोनों हाथ जोड़कर प्रभु महावीर से कहा- “प्रभु ! आप मुझे निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या दीजिये। मैं आपकी वाणी सुनने को तरस रहा हूँ।" __ प्रभु महावीर ने गणधर गौतम व ५०० विद्यार्थी शिष्यों को जीव, अजीव आदि तत्त्वों का उपदेश दिया। गौतम इन्द्रभूति तो प्रभु महावीर के प्रति समर्पित हो चुके थे। उन्होंने समर्पण का वह मापदण्ड स्थापित किया, जिसका उदाहरण अन्यथा दुर्लभ है। इन्द्रभूति ने पुनः प्रभु महावीर से याचना की-“प्रभु ! आप मुझे अपना शिष्य बनाने की अनुकम्पा करें।" इन्द्रभूति के साथ ही उनके ५०० विद्यार्थी भी मुनि बन गये। इन्द्रभूति की प्रभु महावीर का शिष्य बनने की चर्चा जंगल की आग की तरह समस्त पावापुरी में फैल गई। गली, बाजार, चौराहे पर यह जन-चर्चा बन गई। सोमिल ब्राह्मण की यज्ञशाला के सभी ब्राह्मण घबरा गये। सबने एक सभा बुलाई, जिसमें तय हुआ कि जिस तरह भी हो सके उस तरह इन्द्रभूति गौतम व उनके विद्यार्थी को वर्द्धमान के इन्द्रजाल से निकाला जाये क्योंकि यह धर्म-रक्षा का प्रश्न था। __उसी स्थल पर अनुष्ठान में इन्द्रभूति के दो भाई बैठे थे। पहले अग्निभूति का जोश उबाल खाने लगा कि एक ब्राह्मण कैसे एक क्षत्रिय को गुरु मान सकता है ? यह तो वेद परम्परा के विरुद्ध है। अपने भाई को निकालने के लिए वह स्वयं प्रभु महावीर के समवसरण में गये। वह अपने भाई को मुक्त कराने अपने शिष्यों के साथ चले। पर अग्निभूति नहीं जानते थे कि वह अपने भाई को मुक्त कराने नहीं जा रहा, वह तो स्वयं प्रभु महावीर के पास समर्पित होने जा रहा है। अग्निभूति के समाधान व प्रव्रज्या ___ अग्निभूति समवसरण में पहुँचे। दूर से अष्ट प्रातिहार्य देखे। उन प्रातिहार्यों को देखते ही उनकी प्रभु महावीर के प्रति अश्रद्धा श्रद्धा में बदल गई। जोश ठण्डा पड़ चुका था। वह सोचने लगे--'यह तो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी व्यक्ति है। इसी कारण मेरा भाई अपने शिष्यों के साथ इनका शिष्य बन गया है।' फिर अग्निभूति ने सोचा-'अगर यह सचमुच सर्वज्ञ है तो यह मेरे मन की बात को प्रकट कर देगा। अगर ऐसा हुआ तो मैं इन्हें सर्वज्ञ मान लूँगा।' सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र ११५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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