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________________ यह चर्चा वेद, ब्राह्मण, यज्ञ, अस्पृश्यता का अन्त करने वाली थी । प्रभु महावीर को शिष्य परिवार की प्राप्ति होने वाली थी। जैनधर्म में गणधर गौतम इन्द्रभूति का अपना स्थान है, उन्हें महावीर के बाद द्वितीय मंगल माना जाता है। लब्धियों व ऋद्धि-सिद्धि का भण्डार माना जाता है, उनके प्रश्न करने का ढंग कृष्ण-अर्जुन, बुद्ध-आनन्द- जैसा है। उनकी विद्वत्ता हर शास्त्र में उनके द्वारा प्रभु महावीर से किये गए प्रश्नों से झलकती है। संसार में प्रश्न करना भी सहज नहीं है। प्रश्न वही कर सकता है जिसे स्वयं काफी कुछ पता है। प्राप्त ज्ञान पर श्रद्धा है, पर संशय के कारण ज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा, वही व्यक्ति अपने गुरु से संशय का समाधान विनयवान होकर करता है । जो प्रश्न का उत्तर पाकर संतुष्ट हो जाये तो वह ज्ञानी है, अगर श्रद्धा आने पर थोड़ा-सा भी मिथ्यात्व का उदय हो जाये तो वह जीवनभर संशयवान रहेगा। संशयवान का पतन निश्चित है । इसलिए प्रश्न करना बुरा नहीं है । पर प्रश्न करने का ढंग गणधर गौतम जैसा होना चाहिए। तत्त्व के प्रति प्रश्न करना धर्म पर सम्यक्त्व को दृढ़ करता है । इन्द्रभूति गौतम ने समवसरण में प्रवेश किया तो प्रभु महावीर ने आते ही प्रश्न किया - " गौतम ! आ गये ?” अपना नाम प्रभु महावीर के मुख पर सुनकर गौतम को आश्चर्य नहीं हुआ। वह सोचने लगे - 'इन्द्रभूति गौतम के नाम से तो हर कोई परिचित है । इस इन्द्रजालिया ने मेरा नाम पहले से सुन रखा है। मुझे अपना ज्ञान दिखाने के लिए इसने मुझे मेरे नाम से पुकारा है। वेद के ज्ञाता इन्द्रभूति को हर कोई जानता है। फिर आजकल मैं पावापुरी में प्रमुख पुरोहित की भूमिका निभा रहा हूँ । प्रमुख होने के कारण बच्चे-बच्चे की जीभ पर मेरा नाम है।' इन्द्रभूति का अहंकार बढ़ता ही जा रहा था। इस अहंकार के कारण उसका ज्ञान समाप्त हो रहा था । प्रभु महावीर ने पुनः कहा- " गौतम ! अपने मन वेदों के प्रति शंका लिए तुम मेरे पास आये हो। तुम्हें आत्मा के अस्तित्त्व के प्रति शंका है क्योंकि तुम मानते हो कि अगर आत्मा का अस्तित्त्व है। वह छायादि पदार्थों की तरह प्रत्यक्ष क्यों नहीं? वह तो आकाशकुसुम की भाँति सर्वथा अप्रत्यक्ष है । इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता ।" ३ इन्द्रभूति गौतम - "हाँ आर्य! मेरे मन में इस विषय के बारे में हमेशा शंका बनी रहती है। क्योंकि" विज्ञानघन ऐवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय नान्देवातु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ति ।” १४ यह वेद वाक्य भी इस बात का समर्थन करते हैं कि भूत समुदाय में चेतन पदार्थ उत्पन्न होता है और उसी में लीन हो जाता है। परलोक की कोई संज्ञा नहीं । भूत समुदाय से ही विज्ञानमय आत्मा की उत्पत्ति का अर्थ तो यही है कि भूत समुदाय के अतिरिक्त पुरुष (आत्मा) का अस्तित्त्व नहीं ।" प्रभु महावीर - " हे गौतम! दूसरी ओर तुम्हें यह भी पता है कि वेद से पुरुष का अस्तित्त्व सिद्ध होता है।" इन्द्रभूति - "हे आर्य ! मैंने यह श्रुति वाक्य पढ़ा है- " स वै अयमात्मा ज्ञानमयः । १५ इसमें आत्मा का अस्तित्त्व सिद्ध है। दोनों की परस्पर बातों में विरोधाभास झलकने के कारण मेरे मन में शंका बनी हुई है। क्योंकि 'विज्ञानघन' इत्यादि श्रुत वाक्य को प्रमाण मानकर भूत शक्ति को ही आत्मा माना जाये या आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्त्व माना जाये।" प्रभु महावीर - "विज्ञानघन आदि का जैसा अर्थ आप लगा रहे हो वैसा यह अर्थ नहीं है । तुम्हारे अर्थ से परस्पर विरोध झलकता है । पर विज्ञानघन - इस श्रुति वाक्य का अर्थ और ही है। तुम विज्ञानघन का अर्थ पृथ्वी आदि भूत समुदाय से उत्पन्न 'चेतना पिण्ड' ऐसा करते हो पर विज्ञानघन का यह अर्थ नहीं है। विज्ञानघन का तात्पर्य ज्ञान पर्याय से है। आत्मा में प्रतिक्षण नवीन ज्ञान-पर्याय का आविर्भाव तथा भूतकालिक ज्ञान -पर्यायों का तिरोभाव होता रहता है। जैसे एक पुरुष घर को देखता है, उसका चिन्तन करता है, तो उस समय उसकी आत्मा में घर-विषयक ज्ञानोपयोग होता है जिसे हम घर ११४ Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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