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________________ (१०) दसवें गणधर मैतार्य के मन में परलोक के बारे में संदेह घर कर चुका था। (११) ग्यारहवें गणधर प्रभास के मन में मोक्ष के बारे में संदेह था। ये सभी प्रश्न ऐसे हैं जो आस्तिक व नास्तिक जगत् में भेद-रेखा खींचते हैं। इन ब्राह्मण विद्वानों को प्रभु महावीर ने अनुपम ढंग से प्रभावित किया था। यह प्रभाव अहिंसा का था, जोर-जबर्दस्ती का नहीं था। प्रभु महावीर का पावापुरी पधारना और इन्द्रभूति का समाधान प्रभु महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन चुके थे। उन्होंने अपने ज्ञान के बल से जाना कि पावापुरी में एक विशाल यज्ञ का आयोजन हो रहा है जिसमें हजारों क्रियाकाण्डी ब्राह्मण सम्मिलित हो रहे हैं। मुझे तीर्थंकर गोत्र के उदय के कारण जगत् के जीवों के कल्याणार्थ तीर्थ की स्थापना करनी है। मेरे पावापुरी जाने से जन-साधारण को अभूतपूर्व लाभ होगा। इस भाव से प्रभु महावीर ने मध्यम पावापुरी की ओर विहार किया। वहाँ धनवान ब्राह्मण सोमिलाचार्य का यज्ञ चल रहा था। समवसरण की रचना के कारण आकाश में देव-देवियों का आगमन हो रहा था। इन्द्रभूति गौतम इस यज्ञ का मुख्य पुरोहित था। इसमें वह व अन्य ब्राह्मण अपने शिष्य-परिवार सहित सम्मिलित हुए थे। ___ आकाश से उड़ने वाले देव-देवियाँ यज्ञ स्थल के ऊपर से उड़कर जाने लगे। देव आगमन से इन्द्रभूति प्रसन्न होकर झूम उठा। वह कहने लगा-“देखो, मेरे मंत्रों का आह्वान ! देवता तक मेरे इस यज्ञ में विमानों में बैठ धरती पर आ रहे हैं।" पर शीघ्र ही देव यज्ञ-स्थल के ऊपर से आगे निकल गये। इन्द्रभूति गौतम का अहंकार समाप्त हो गया। उसने सोचा'जरूर कोई गडबड है. कोई (इन्द्र जालिया) यज्ञ में विघ्न डाल रहा है। उसके इन्द्रजाल में देव भी आ गये हैं, जो यज्ञ स्थल को छोड दसरी जगह जा रहे हैं। मझे जल्द ही उस इन्द्रजालिये का पता लगाना चाहिए और जनता को सतर्व करना चाहिए। मैं अभी उसके पास जाकर जनता के सामने उसकी पोल खोल दूंगा।' इन्द्रभूति इस समय प्रभु महावीर से ८ वर्ष बड़े थे। बड़े सरल, भद्र प्रकृति के ब्राह्मण थे। उन्होंने वस्तु-स्थिति का पता लगाया तो पता चला कि राजकुमार वर्धमान अपने को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी मानता है। देवता उसके प्रवचन-स्थल की ओर जा रहे हैं। वर्धमान के बारे में इन्द्रभूति गौतम ने समस्त सूचनाएँ सोमिल ब्राह्मण से प्राप्त की थीं। वह यज्ञ स्थल को छोड़ अपने ५०० शिष्यों के साथ प्रभु महावीर के समवसरण में आये। जब रास्ते में आ रहे थे, तो वह सोच रहे थे-'वह ऐसा कौन है जिसने देवताओं को भ्रम में डाल दिया है। ऐसे में यज्ञ थोड़ा चल सकता है? जिन-जिन देवताओं का आह्वान हम मंत्रों से यज्ञ में करते हैं, उन्हें बलि देते हैं, अन्न देते हैं वे अन्यत्र घूमें।' फिर सोचा- 'चलो ! अब जाता हूँ। देखता हूँ, वह कैसे लोगों को वेद व यज्ञ से दूर करता है ? उसका यह कदम तो समस्त ब्राह्मण जाति के नियमों के विरुद्ध है। संसार में पहले तो कोई वेद और ब्राह्मण से विरोध करने वाला पैदा नहीं हुआ। मैं उसे उसके किये की सजा दूंगा। ___ पुनः गौतम इन्द्रभूति सोचने लगे-'मैं उसके पास जा रहा हूँ। उससे चर्चा तो होगी ही। पर अगर मैं चर्चा में हार गया तो उसका शिष्य बन जाऊँगा। अगर मैं जीत गया, तो उसे अपना शिष्य बना लूँगा। उसके सर्वज्ञता की परीक्षा तो करनी होगी। "धन्य है गौतम इन्द्रभूति के भाव, जो यह सोचते हैं कि मैं हारा तो उनका शिष्य बन जाऊँगा।" भगवान के सम्मुख जीत-हार का प्रश्न नहीं होता है। शिष्य की हार में ही उसकी जीत है। गौतम गोरे रंग के आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। गौतम स्वामी के कदम समवसरण की ओर बढ़े। समवसरण के अतिशय को देखते ही प्रभु महावीर के प्रति सारे संशय दूर हो गये, बचे थे मात्र प्रश्न। ___ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र ११३ | ११३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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