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________________ अग्निभूति प्रभु महावीर के द्वार पर आ पहुँचे। प्रभु महावीर ने उन्हें देखते ही प्रश्न किया"देवानुप्रिय ! तुम्हारे मन में कर्म के अस्तित्त्व के बारे में शंका है ?" प्रभु महावीर की सर्वज्ञता का प्रमाण उन्हें मिल चुका था। अब पुनः प्रश्न करने का सवाल ही पैदा नहीं हो रहा था। अग्निभूति ने स्वीकार करते हुए कहा- "हाँ महाराज ! कर्म के अस्तित्त्व के विषय में मेरी शंका है। क्योंकि कर्म प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध नहीं होता। इसलिए यह आकाश कुसुम की भाँति अभाव रूप है।" क्योंकि “पुरुष एवेदं "।" यह श्रुति पुरुषाद्वैत का प्रतिपादन कर रही है। जब दृश्य-अदृश्य, बाह्य-आभ्यन्तर, भूत एवं भविष्य सब कुछ पुरुष ही है तो पुरुष के अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं है। युक्तिवाद भी कर्म के अस्तित्त्व को सिद्ध नहीं कर सकता। कर्मवादी कहता है-“जीव पहले कर्म करता है, फिर उसका फल भोगता है। पर तर्क की कसौटी पर यह सिद्धान्त नहीं टिक सकता।' 'जीव' नित्य, अरूपी और चेतन माना जाता है। और कर्म अनित्य, रूपी और जड़। इन परस्पर विरोधाभास में जीव और कर्म का सम्बन्ध कैसे माना जाये, सादि या अनादि? जीव और कर्म का सम्बन्ध 'सादि' मानने का अर्थ होगा कि यह (आत्मा) पहले कर्मरहित था और अमुक काल में कर्म का संयोग बाद में हुआ। यह मान्यता कर्म-सिद्धान्त के विपरीत है। कर्म-सिद्धान्त के अनुसार जीव की मन, वचन, काया की प्रवृत्तियाँ कर्मबन्ध का कारण हैं। यह कर्म संयोग का कारण है। मन, वचन, काय ये स्वयं कर्मफल हैं। क्योंकि पूर्वकृत कर्म से ही मन आदि तत्त्वों की प्राप्ति जीव को होती है। इस दशा में 'अबद्ध' जीव किसी भी प्रकार से बद्ध नहीं हो सकता क्योंकि उसके पास बंधन का कारण नहीं है। यदि बिना कारण ही कर्मबन्ध मान लिया जाये तो कर्म-मुक्त सिद्ध आत्माओं को भी पुनः कर्मबद्ध मानने में कोई आपत्ति नहीं होगी। ___ इस प्रकार कर्मवादियों का मोक्ष नाममात्र रह जायेगा। वस्तुतः कोई भी आत्मा ‘मुक्त' नहीं ठहरेगा। अतः अबद्ध जीव का बन्ध मानना दोषयुक्तिपूर्ण है। जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध भी सिद्ध नहीं हो पाता, क्योंकि जीव कर्म सम्बन्ध अनादि होगा तो आत्म-नित्य भी होगा। और नित्य पदार्थ का कभी नाश न होने से वह कभी कर्म-मुक्त नहीं होगा। जब जीव की कर्म से मुक्ति नहीं तो वह इसलिए प्रयत्न क्यों करेगा? प्रभु महावीर-“अग्निभूति ! तुमने जो शंका प्रस्तुत की है उससे लगता है कि तूने 'वेद वाक्य' के वास्तविक अर्थ को नहीं समझा। 'पुरुषं खल्वेदं' यह श्रुति वाक्य 'पुरुषाद्वैत' का साधक नहीं, परन्तु यह एक स्तुति वाक्य है।" अग्निभूति-“इस श्रुति वाक्य को 'स्तुति वाक्य' क्यों माना जाए? 'पुरुषाद्वैत साधक' क्यों न माना जाये ?' प्रभु महावीर-“पुरुष अद्वैतवाद दृष्टि अपलाप और अदृश्य कला दोषों से दूषित है।'' अग्निभूति-"आपका कथन कैसे सत्य है ?" प्रभु महावीर-“पुरुषाद्वैत के स्वीकार में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु आदि प्रत्यक्ष दृश्य पदार्थों का अपलाप होता है। सत्-असत् में विलक्षण “अनिर्वचनीय" नामक एक अदृष्ट पदार्थ की कल्पना करनी पड़ती है।" अग्निभूति-'आर्य ! इस सिद्धांत में कल्पना की कोई बात नहीं, क्योंकि पुरुषाद्वैतवादी इस दृश्य जगत् को पुरुष से अभिन्न मानते हैं। जड़-चेतन का भेद तो कल्पना मात्र है। वस्तुतः जो कुछ दृश्यादृश्य और चराचर पदार्थ हैं सब पुरुष रूप हैं।" ११६ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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