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प्रभु महावीर का जैसे राज्य, परिवार छूट चुका था इसी तरह पहला नाम भी छूट चुका था। अब तो वह श्रमण थे। महावीर थे। निग्रंथ थे। बौद्ध कथानकों में प्रभु महावीर को निग्रंथ ज्ञातापुत्र कहा गया है।
आचार्य हरिभद्र ने लिखा है- “जो शुद्ध-विक्रान्त होता है वह वीर कहलाता है। कषायादि महान् अन्तरंग शत्रुओं को जीतने से यह विक्रान्त-महावीर होता है।" शरणदाता : प्रभु महावीर ___ तपस्याकाल में हमने जीर्ण सेठ का जहाँ वर्णन किया है। वहीं चमरेन्द्र द्वारा शरण ग्रहण करने का वर्णन करना भी जरूरी है। जब प्रभु महावीर सुंसुमारपुर पधारे, उस समय शक्रेन्द्र से भयभीत हुआ, चमरेन्द्र प्रभु महावीर की शरण में आया था इसका वर्णन तो हम साधना काल में कर आये हैं।
अब वह क्यों आया था इसका स्पष्टीकरण भी करना आवश्यक है
"असुरराज चमरेन्द्र पूर्वभव में 'पूरण' नाम का एक बाल (हठयोगी) तपस्वी था। वह दो-दो व्रतों का तप करता था। पारणे के दिन काठ के पात्र में भिक्षा माँगता था। इस पात्र के चार भाग थे। पहले भाग की भिक्षा वह पथिकों को प्रदान करता। दूसरी तह की भिक्षा पक्षियों के आगे डालता। तीसरी तह की भिक्षा जल के जीवों (मछली आदि) को खिलाता। चतुर्थ तह में ग्रहण की भिक्षा स्वयं ग्रहण करता। उसने १२ वर्ष तक इसी प्रकार साधना की। अंत समय में एक मास के निराहार अनशन के बाद चमरचंचा राजधानी का इन्द्र बना।
इन्द्र बनते ही उसने अवधिज्ञान के माध्यम से अपने ऊपर बैठे सौधर्मावतंसक विमान में शक्र नामक सिंहासन पर शक्रेन्द्र को दिव्य भोग भोगते देखा।
उससे यह सुख सहा न गया। पर उसमें शक्रेन्द्र से लड़ने की शक्ति नहीं थी।
असुरराज अपनी राजधानी छोड़ प्रभु महावीर की शरण में आया। तप का यह बारहवाँ वर्ष था। वहाँ उसने विशाल विकुर्वणा की। वह देवराज इन्द्र, शक्रेन्द्र को डराने लगा।
इधर शक्रेन्द्र ने भी कोप करके अपना वज्रायुध उसकी तरफ फेंका। आग की चिनगारी उगलते हुए वज्र को देख भयभीत हुआ। इस भयंकर शस्त्र से चमरेन्द्र जिस मार्ग से आया उसी मार्ग से पुनः लौट गया।
शक्रेन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा तो पता चला कि यह श्रमण भगवान महावीर की शरण लेकर आया है और पुनः वहीं भागा जा रहा है। कहीं प्रभु महावीर को यह वज्र कष्ट न दे, उसने शीघ्र ही इस शस्त्र को रोका।
उधर चमरेन्द्र ने सूक्ष्म रूप बनाया। वह प्रभु महावीर के चरणों में छिप गया। शक्रेन्द्र ने प्रभु महावीर के करीब आते वज्र को सँभाला। चमरेन्द्र को भगवान महावीर की शरण में आया जानकर उसे क्षमा कर दिया।
यह घटना जैन इतिहास में एक अचम्भा है कि असुरराज कभी सौधर्म सभा में नहीं जाते। पर अनंत काल के पश्चात् यह आश्चर्य घटित हुआ।
सुसुमारपुर से प्रभु महावीर भोगपुर, नन्दिग्राम होते हुए मेढ़ियाग्राम पधारे। यहीं ग्वाले का उपसर्ग हुआ था।
प्रभु महावीर के साधना काल का वर्णन तो देव भी करने में असमर्थ हैं फिर हमारे में यह शक्ति कहाँ कि इसका श्रद्धापूर्वक वर्णन किया जाये। पूर्व आचार्यों ने जैसा कथन किया है, उसी को आधार मानकर हमने १२ वर्षों का वर्णन किया है।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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