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________________ वह प्रभु महावीर के पास आया। आकर उसने प्रभु महावीर के समक्ष अपने मन में वर्षों से उत्पन्न प्रश्नों का समाधान किया । स्वातिदत्त के प्रश्न व प्रभु का समाधान स्वातिदत्त जहाँ क्रियाकाण्डी ब्राह्मण था, वहाँ विशिष्ट ज्ञानी भी था। वह अपनी परम्परा से चिपका नहीं था । वह गुणग्राही था। उसने जो प्रश्न किये, वे उसकी विशिष्ट बुद्धि के परिचायक हैं। हमारे विचार में प्रश्न करना बहुत कठिन कार्य है, क्योंकि जिसे कुछ ज्ञान होगा वही प्रश्न करेगा। अज्ञानी क्या प्रश्न करेगा ? स्वातिदत्त के प्रश्न और प्रभु महावीर के उत्तर का विवरण हम निम्न पंक्तियों में दे रहे हैं स्वातिदत्त - "हे भिक्षु ! आत्मा क्या है ?" प्रभु महावीर - "जो शब्द 'मैं' का वाच्यार्थ है वही आत्मा है अर्थात् जो शक्ति 'मैं' का अहसास कराती है वही आत्मा है ।" स्वातिदत्त ने पुनः प्रश्न किया- “आत्मा का स्वरूप व लक्षण क्या है ?" प्रभु महावीर - " आत्मा अत्यंत सूक्ष्म है। रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है। चेतना गुण ही इसका लक्षण है।" स्वातिदत्त - " सूक्ष्म क्या है ?" प्रभु महावीर "जो इन्द्रियों द्वारा न जाना जाये।" - स्वातिदत्त जिज्ञासु था। उसने कहा- "क्या आत्मा को शब्द, रस, गंध और वायु के सदृश सूक्ष्म माना जा सकता है ?" प्रभु महावीर ने स्पष्टीकरण करते हुए समझाया- "स्वातिदत्त ! ऐसा नहीं है जैसा तूने मान रखा है। ये सभी पदार्थ तो इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जा सकते हैं । श्रोत्र के द्वारा शब्द, नेत्र के द्वारा रूप, घ्राण के द्वारा गंध और शब्द, स्पर्श के द्वारा वायु ग्राह्य है । जो इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं हो, वही सूक्ष्म कहलाता है।" स्वातिदत्त ने पुनः पूछा-" क्या ज्ञान को हम आत्मा कह सकते हैं ? " प्रभु महावीर आर्य! ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है, पर मात्र ज्ञान आत्मा नहीं। ज्ञान का आधार आत्मज्ञानी है। यानि ज्ञान भी आत्मा में ठहरता है।" स्वातिदत्त- “भगवन् ! प्रदेशन क्या है ?" प्रभु महावीर - "हे देवानुप्रिय ! प्रदेशन का अर्थ उपदेश होता है। वह उपदेश धर्म सम्बन्धी भी हो सकता है और अधर्म के सम्बन्ध में भी। इसलिए धार्मिक उपदेश भी प्रदेशन है और अधर्म के सम्बन्ध में किया गया उपदेश भी प्रदेशन है।" स्वातिदत्त- "प्रभु ! प्रत्याख्यान आप किसे मानते हैं ?" प्रभु महावीर हे आर्य ! प्रत्याख्यान का अर्थ निषेध है, रोकना है। यह दो प्रकार का है (१) मूलगुण प्रत्याख्यान, तथा (२) उत्तरगुण प्रत्याख्यान । आत्मा के दया, अनुकंपा, श्रद्धा, भक्ति व सत्य आदि मूलगुण हैं। इनकी रक्षा मूलगुणों की रक्षा है। हिंसा, असत्य और चोरी आदि पाप के परित्याग को मूलगुण प्रत्याख्यान कहते हैं । इन्हीं मूलगुणों के सहायक, सदाचार के विरुद्ध आचरण के त्याग का नाम उत्तरगुण प्रत्याख्यान है।" स्वातिदत्त प्रभु महावीर से अपने प्रश्नों के समाधान पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। ८३ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र ९४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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