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________________ ग्वाले का उपसर्ग वर्षावास समाप्त होते ही प्रभु जंभियग्राम से मेढ़ियाग्राम पधारे। मेढ़ियाग्राम से छम्माणि पधारे। ग्राम के बाहर ध्यानमुद्रा में ध्यानस्थ हुए।८४ ___ सायंकाल का समय था। एक ग्वाला उसी स्थान पर बैल लिये घूम रहा था। उसने देखा जंगल में यह भिक्षु खड़ा है, यह मेरे बैलों का ध्यान रखेगा। इस कारण उसने बैल प्रभु के समीप छोड़ दिये। उसे कोई घरेलू कार्य था। उसकी पूर्ति के लिये वह सारा दिन नगर में घूमता रहा। बैल स्वामी को न पाकर आगे जंगल में चले गये। वे घास खाते-खाते जंगल में और आगे निकल गये। वहाँ झाड़ियों के झुण्ड थे। बैल उसके पीछे जाकर बैठ गये।८५ नगर से थका-माँदा ग्वाला आया। उसने देखा कि उसके बैल नहीं हैं। उसने बैलों के बारे में प्रभु से पूछा-“हे देवार्य ! क्या आपने मेरे बैल देखे हैं ?" प्रभु महावीर मौन समाधि में लीन, आत्म-साधना में विचरण कर रहे थे। इसी कारण वह चुप रहे। प्रभु महावीर को देखकर ग्वाला गुस्से से लाल-पीला हो गया। उसने कहा-“एक तो चोरी, दूसरी सीना जोरी। मेरे बैल भी गुम कर दिये और बोलता भी नहीं। ठहरो, मैं तुम्हें तुम्हारी करनी की अभी सजा देता हूँ।" यह ग्वाला और कोई नहीं था। यह वही शय्या-पालक का जीव था, जिसके कानों में संगीत बंद न करने के कारण त्रिपृष्ट वासुदेव के भवन में महावीर के जीव ने कानों में पिघला सीसा डाला था। उसी समय त्रिपृष्ट वासुदेव जीव के रूप में जो भयंकर कर्मबंध हुआ था उसको भोगने का समय आ गया था। जन्म-जन्मातरों के बाद वही जीव ग्वाले का रूप धारण करके आया था। यह बात प्रभु महावीर से छिपी नहीं थी। ग्वाले ने पूर्वभव का बदला लेते हुए प्रभु महावीर के कानों में तीक्ष्ण कीलें गाढ़ दीं। यह भयंकर उपसर्ग प्रभु महावीर ने सहा। ऐसा उदाहरण संसार के इतिहास में कहीं नहीं मिलता। प्रभु महावीर को इन कीलों से भयंकर शारीरिक वेदना हुई। प्रभु ने इस वेदना को प्रसन्नता से सहा। उनके मन में ग्वाले के प्रति क्षण मात्र भी क्रोध न आया। वह चिंतन कर रहे थे कि त्रिपृष्ट वासुदेव के मन में मैंने जो शय्या-पालक के कान में सीसा डाला था, उसे कितनी पीड़ा हुई होगी। ये पीड़ा तो उससे कहीं कम है। कर्मफल तो भोगना है। कर्म क्षीण करने के लिए तो मैंने राज्य, परिवार छोड़ा है। फिर मेरा किया मुझे भोगना है। मेरे कर्म का फल कोई दूसरा कैसे भोग सकता है ? ___ मनुष्य अकेले कर्म करता है, अकेले ही भोगता है। अकेले ही जन्म-मरण की परम्परा बाँधता है, अकेले ही इस परम्परा से मुक्त होता है। कीलें निकालना प्रभु महावीर वहाँ से चलकर मध्यम पावा पधारे। भिक्षा के लिये वह घूम रहे थे। उनके कानों में कीलें ठुकी हुई थीं। असाधारण वेदना में भी प्रभु महावीर घूम रहे थे। प्रभु महावीर का यह अंतिम उपसर्ग था। उनका पहला उपसर्ग भी ग्वाले ने किया था। अंतिम भी ग्वाले ने किया था। - इस नगर में सिद्धार्थ नामक एक वणिक् रहता था। जब प्रभु महावीर भिक्षार्थ घूम रहे थे, तो उस वणिक् के पास वणिक् का मित्र एक वैद्य खरक बैठा था। दोनों बातें कर रहे थे। सामने प्रभु महावीर को आते देखा। दोनों उठे। उठकर प्रभु को आदरपूर्वक वंदन किया। ___ उसी समय खरक वैद्य अपने मित्र सिद्धार्थ से बोला-“इस भिक्षु का शरीर वैसे सुन्दर लक्षणों से परिपूर्ण है, पर लगता है कि यह सशल्य है। कोई दुःख जरूर है।" सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र - ९५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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