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घोर अभिग्रह व चन्दना दासी का उद्धार
मेढिय ग्राम से प्रभु महावीर कौशाम्बी पधारे। उस दिन पौष कृष्णा प्रतिपदा का दिन था। प्रभु महावीर ने उस दिन अपने जीवन का घोर अभिग्रह किया।७८
"सिर मुंडित हो, पाँवों में बेड़ियाँ हों, तीन दिन की भूखी हो, दाता का एक पैर देहली के अंदर दूसरा बाहर हो, उड़द के बाकुले हों, भिक्षा का समय बीत जाने पर द्वार के बीच में खड़ी हुई हो, दासी हो, राजकुमारी हो, तीन दिन से भूखी प्यासी हो, ऐसे संयोग मुझे मिलें, तब मुझे भिक्षा लेनी है अन्यथा छह मास तक मुझे भिक्षा ग्रहण नहीं करनी है।"७९
इस प्रकार कठोर अभिग्रह कर प्रभु महावीर प्रतिदिन भिक्षा के लिए निकलने लगे। पर कौशाम्बी नगरी के उच्च. नीच, मध्यम कुलों में प्रभु महावीर भ्रमण करते। वह सेठों की हवेलियों में जाते। गरीब, मजदूर, दासों की झोपड़ियों में जाते। वह उन सब कुलों में जाते जिनका आहार शुद्ध हो।
रोजाना दिन निकलता। प्रभु महावीर निकल जाते। कोई नहीं जानता था कि देवार्य क्या चाहते हैं ?
लोग प्रभु महावीर को भिक्षा देना चाहते थे। वे सोचते-'ये कैसा निग्रंथ श्रमण है, जो रोजाना भिक्षा के लिए निकलता है, पर वापस हो जाता है। कोई भी प्रभु महावीर के हृदय के भावों को न जान सका। हर नर-नारी के मन में एक प्रश्न बार-बार उभरता, वह था- "इस भिक्षु को क्या चाहिये?''
प्रभु महावीर के अभिग्रह और भिक्षा हेतु भ्रमण की चिंता अब आम विषय हो गई थी। लोग प्रभु महावीर को भिक्षा देने हेतु बहुत भावुक थे। बात वहीं रुक जाती कि प्रभु महावीर किस तरह और किस भाग्यशाली से अन्नदान ग्रहण करेंगे। प्रभु की तपस्या का बारहवाँ साल चल रहा था। प्रभु महावीर का शरीर घोर उपसर्ग व परीषह सहने का आदी हो चुका था। वह चार ज्ञान के धारक हो चुके थे। मंजिल उनके करीब आने वाली थी।
प्रभु महावीर की साधना का प्रसंग बड़ा अनुपम रहा है। उन्हें जन्म से दासों से लगाव रहा है। उनका जन्म होते ही प्रियंवदा दासी मुक्त हुई। इसके बाद जितने भी पारणे हुए, सब दासियों के हाथों हुए।
प्रभु महावीर के साधनाकाल का यह अंतिम पारणा होना था। प्रभु महावीर एक दिन घूमते हुए कौशाम्बी-नरेश के अमात्य सुगुप्त के घर पधारे। अमात्य की पत्नी नन्दा प्रभु महावीर की परम भक्त थी! उसे जब पता चला कि प्रभु महावीर
कलते हैं और वापस हो जाते हैं। अपने मन की बात किसी को बताते नहीं हैं। पता नहीं, कितने समय से प्रभु महावीर ऐसे ही चल रहे हैं ?
नन्दा प्रभु महावीर के प्रति समर्पित श्रमणोपासिका थी। वह प्रभु महावीर की कठोर साधना व अभिग्रहों से परिचित थी। इसी कारण वह बहुत दुःखी रहने लगी। भक्त का इष्ट किसी मुसीबत में हो, तो क्या नहीं कर गुजरता।
चार मास बीत चुके थे। प्रभु महावीर भिक्षा लेने का नाम नहीं लेते थे।
एक दिन प्रभु महावीर अमात्य सुगुप्त के घर पधारे। नंदा ने प्रभु महावीर को भिक्षा देनी चाही, पर वह बिना कुछ ग्रहण किये वापस हो गये। नन्दा तड़फ उठी। उसकी तड़फ दासियों से देखी न गई। उन्होंने अपनी मालकिन से पूछा"आर्या ! क्या बात है आप कई दिनों से उदास-उदास, बुझी-बझी-सी नजर आ रही हैं? कहीं हमारे स्वामी से तो अनबन नहीं हुई?"
नन्दा दासियों के कहने से और खुलकर रोई। फिर उसने कहा-“मेरी आपके स्वामी व मेरे पति से कोई अनबन नहीं हुई। वह तो बेचारे दयालु, भद्र पुरुष हैं। असल में मेरे परमात्मा प्रभु महावीर की हालत मुझसे देखी नहीं जाती।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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