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आगमन व दान देने की प्रतीक्षा को एकटक देख रहा था। प्रतीक्षा से आँखें पथरा गई थीं। वह सोच रहा था-"प्रभु अब पधारें, अब पधारें।' पर प्रभु महावीर की उसे छवि दिखाई न दी।
जीर्ण के हृदय में भावनाओं का तूफान आ गया। श्रद्धा का ज्वार-भाटा उमड़ पड़ा। इस आध्यात्मिक प्रतीक्षा के पलों में उसका हृदय अपूर्व प्रसन्नता अनुभव कर रहा था। उसकी आत्मा भावों की उच्चता की ओर बढ़ रही थीं।
इधर पूरण सेठ के दान से देवों में प्रसन्नता छा गई। सहसा देव-दुन्दुभि बजी। पंच दिव्य-वृष्टि हुई। “अहोदान अहोदान' की देवता पुकार करने लगे। उसी समय देव-घोषणा हुई
"प्रभु महावीर का चातुर्मासिक तप का पारणा हो गया है।"
जीर्ण सेठ ने जब यह दिव्य ध्वनि सुनी तो उसका दिल टूट गया। हृदय पर वज्राघात हुआ। उसकी श्रद्धा डगमगा गई। वह अपने भाग्य को कोसने लगा। निराश होकर वह सोच रहा था-'मैं कैसा अभागा हूँ । चार मास तक निरन्तर इन्तजार करने पर भी प्रभु महावीर ने मेरे ऊपर कृपा नहीं की। आखिर मैं सचमुच जीर्ण हो गया हूँ। क्योंकि मैं जीर्ण धन के अभाव से नहीं हूँ, धन तो जन्म से प्राप्त हुआ है। मैं सचमुच जीर्ण हूँ क्योंकि मैं प्रभु महावीर की नजर में जीर्ण हूँ।' उसे अपने आप पर क्षोभ हुआ। ___ यह तो जीर्ण सेठ का पश्चात्ताप था। शास्त्रकार कहते हैं कि उसकी आत्मा उस समय इतने दिव्य परिणामों की ओर बढ़ रही थीं कि अगर वह दो घड़ी और देव-दुन्दुभि न सुनता तो उसे प्रभु महावीर से पहले केवलज्ञान प्राप्त हो जाता।
यह घटना दिखाती है कि भक्ति के क्षेत्र में अमीर-गरीब का प्रश्न नहीं है। भगवान तो भक्ति के वश में है। जीर्ण सेठ ने अपनी भक्ति द्वारा एक नये इतिहास का सर्जन किया।
उधर पूरण सेठ ने प्रभु महावीर को जब पारणा कराया तो देवकृत दिव्य अतिशय देखे। उसके घर के बाहर लोगों का ताँता लग गया। लोगों ने पूछा- "हे भाग्यशाली ! तूने इस भिक्षुक को क्या भिक्षा दी है, जिस कारण देवता भी तेरे से प्रसन्न हो रहे हैं ?"
पूरण सेठ अहंकारवश झूठ बोलने लगा। उसने सोचा कि अगर मैं सत्य बोलूँगा तो मेरी प्रतिष्ठा नहीं रहेगी।'
फिर उसने होशियारी से काम लेते हुए, शेखी बघारते हुए कहा-"भाई ! मैंने इस भिक्षु को अपने हाथों से शुद्ध क्षीर का भोजन कराया था।'' लोग पूरण सेठ के भाग्य की प्रशंसा करने लगे।
इस झूठ से पूरण को लाभ नहीं मिला पर जीर्ण सेठ, जिसने अपने हाथों से कुछ नहीं दिया था, सिर्फ भावना की थी, मात्र प्रतीक्षा की थी। उसी शुभ भाव से वह मरकर बारहवें देवलोक में देव बना।
इस कथा से पता चलता है कि जैनधर्म में भावनाओं का कितना महत्त्व है, शुभ भावना अच्छे कर्म का कारण है, अशुभ भावना मनुष्य को भटकाती है। बारहवाँ वर्ष
प्रभु महावीर ने यह चातुर्मास वैशाली में सम्पन्न किया। वहाँ चातुर्मास की समाप्ति पर सुंसुमारपुर को तरफ विहार किया। यहाँ आप गाँव के बाहर अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हुए। आप कायोत्सर्ग में खड़े थे। इसी स्थान पर देवता चमरेन्द्र ने इन्द्र के वज्र प्रहार से भयभीत होकर आपके चरणों में शरण ग्रहण की।
यहाँ से प्रभु महावीर विहार करते हुए मेढ़िया गाँव पधारे। वहाँ एक गोपालक ने आपको कष्ट देने की चेष्टा की।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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