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________________ अपनी सम्पन्नता में भी मशहूर थी । यहाँ करोड़पति सेठ रहते थे। आम्रपाली यहाँ की नगर वधू थीं, जिसने महात्मा बुद्ध को निमन्त्रण कर अपना सारा उद्यान दान किया था। वह स्वयं भिक्षुणी बनी थीं । राजा चेटक भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का कट्टर अनुयायी था । उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह अपनी राजकुमारी की शादी जैन राजा के साथ से सम्पन्न करेगा। उसके चरित्र का वर्णन भगवतीसूत्र में भी उपलब्ध है। उस नगरी में एक सेठ रहता था । कभी वह बहुत अमीर था । पर यह पैसा, जिसका नाम माया है, छाया की तरह आता-जाता है। माया का एक नाम चंचला है। यह चलती रहती है। कभी यह सेठ इतना सम्पन्न था कि इसे नगरसेठ माना जाता था । पर सारे दिन एक से नहीं रहते। एक दिन ऐसा आया कि लक्ष्मी उस सेठ से रूठ गई । वह श्रमणोपासक सेठ था । धन की कीमत व सदुपयोग वह जानता था। धन के आने-जाने का उसे गम नहीं था। वह तो परम प्रभु भक्त था। इतना गरीब हो जाने पर भी वह लोगों के हृदय में अपने गुणों के कारण राज्य करता था। लोग उसे "जीर्ण" सेठ कहते थे । लोगों में उसकी दान, शील, तप, भावना के किस्से मशहूर थे । धनहीन जीर्ण भक्तिहीन नहीं था । वह सामुद्रिक शास्त्र का ज्ञाता था। एक दिन वह सुबह उठा। भगवान महावीर के पद चिन्हों को देखते-देखते वह उसी उद्यान में पहुँचा, जहाँ प्रभु महावीर ध्यानस्थ । वह प्रभु महावीर को देख बहुत प्रसन्न हुआ। ७७ प्रतिदिन वह उस उद्यान में आता और प्रभु महावीर के दर्शन करता । उन्हें वह आहार- पानी हेतु पधारने की प्रार्थना भी करता । निरंतर चार मास जीर्ण सेठ चातक की तरह प्रभु महावीर का श्रद्धावश इन्तजार करता रहा। प्रभु अभी तक पधारे नहीं थे । सेठ ने सोचा- 'मासिक तप होगा। महीना बीतने पर प्रभु महावीर पधारेंगे।' सेठ ने पहले एक मास इंतजार किया। प्रभु महावीर नहीं आये। फिर इसी तरह दूसरा मास इंतजार करने लगा । प्रभु महावीर ध्यानावस्था में थे। वह भिक्षा के लिए नहीं निकले थे। वर्षावास का तीसरा मास बीत रहा था। प्रभु महावीर ने यह मास भी तप में गुजारा । भिक्षा ग्रहण नहीं की । चातुर्मास समाप्ति पर था । इधर जीर्ण सेठ की भावना बलवती हो रही थी । उसे हर क्षण प्रभु का इंतजार था । इंतजार इंतजार होता है । जीवन ही एक लम्बे इंतजार का नाम है। हम हर क्षेत्र में इंतजार करते हैं । इंतजार सहनशीलता का पर्याय है। चातुर्मास समाप्त होने वाला था । उसने प्रभु महावीर से भिक्षार्थ पधारने की प्रार्थना की। प्रार्थना करके वह प्रभु महावीर का इंतजार करने लगा। जैन श्रमण किसी के निमन्त्रण पर भिक्षा ग्रहण नहीं करता । भिक्षा के ४२ दोष होते हैं जो भिक्षु को टालने होते हैं । जहाँ दोष न हो, साधु वहाँ से भोजन ग्रहण करता है । दोपहर का समय आया । प्रभु महावीर भिक्षा के लिये उपवन से बाहर आये। वह वैशाली नगरी के उच्च, मध्यम, नीच सभी कुलों में भिक्षा की गवेषणा करने लगे । शुद्ध पिण्डैषणा करने लगे । पिण्डैषणा करते हुए वह एक गृहस्थ के घर पधारे। उस गृहस्थ का नाम पूरण था । वह नया-नया सेठ बना था । बड़ी बात यह थी कि वह जीर्ण सेठ का पड़ोसी था। पूरण सेठ ने बड़ी बेरुखी से प्रभु महावीर को देखा । फिर उसने अपनी दासी को कहा - "इस भिक्षु को जो कुछ भी घर में तैयार है दे दो ।" दासी ने एक चम्मच कुल्लत्थ (बाकुले) दिये। प्रभु महावीर ने चार मास की तपस्या का पारणा एक चम्मच भर बाकुलों से किया । दान की भावना भरते हुए जीर्ण सेठ ने सोचा- "कल्पवृक्ष को अमृत से सिंचन करना सुलभ है पर तपोमूर्ति महावीर को दान देना दुर्लभ है। अक्षय पुण्योदय से यह अवसर मिलता है।" इस प्रकार कल्पनाओं में डूबा जीर्ण सेठ प्रभु के ८८ Jain Educationa International सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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