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प्रभु महावीर ने कहा- “संगम ! यह आँसू इसलिए नहीं आये कि तुमने मुझे उपसर्ग दिये। उपसर्ग तो मेरे साधक जीवन की कसौटी है। आँसू इसलिए आये हैं कि छह मास तूने मुझे परीषह (कष्ट) दिये। तूने अज्ञान अवस्था में अपनी आत्मा का इतना पतन कर लिया है कि मैं जब भी तुम्हारे अंधकारपूर्ण भविष्य को देखता हूँ तो सोचता हूँ कि एक अबोध जीव मेरे कारण कष्ट उठायेगा। नरक की यातनाएँ झेलेगा।' ___ "जिस श्रमण के निमित्त हजारों प्राणी कर्मबन्धन से मुक्त होते हैं वही साधक किसी प्राणी के कर्मबंध का निमित्त बने और कोई उसके कारण दुःख पाये, यह आँसू बहाने की बात है। संगम ! जीव अज्ञानता में कर्मबंध कर तो डालता है, पर ये ही कर्मबंधन उसके लिए महान दुःखदायी होते हैं। __ प्रभु महावीर की बात सुनकर संगम का अहंकार नष्ट हो गया। उसने देखा कि प्रभु महावीर की महानता, सहनशीलता के सामने कोई जीव न महान् है, न सहनशील । मैंने इन्द्र की बात पर व्यर्थ अविश्वास किया। संगम स्वर्ग में गया। उसके भयंकर दुष्कृत्य पर इन्द्र अत्यधिक क्रोधित हुआ। उसकी भर्त्सना करते हुए इन्द्र ने संगम को देवलोक से निष्कासित कर दिया। वह अपने देव-परिवार के साथ मेरु पर्वत की चूलिका पर रहने लगा।७५
संगम जा चुका था। प्रभु महावीर दूसरे दिन पुनः व्रज गाँव में पधारे। पूरे छह मास के बाद एक बूढ़ी ग्वालिन वत्सपालक से भोजन ग्रहण कर तप का पारणा किया। उसने प्रसन्नतापूर्वक प्रभु महावीर को पायस रस दिया। पुनः श्रावस्ती में
यहाँ से प्रभु महावीर क्रमशः आलंभिया, श्वेताम्बिका, श्रावस्ती पधारे।
उन दिनों श्रावस्ती में स्कन्द महोत्सव चल रहा था। लोग उत्सव में इतने व्यस्त थे कि भगवान महावीर की तरफ किसी ने ध्यान न दिया।
सारा गाँव स्कन्द के मन्दिर में इकट्ठा हो गया था। भक्तजन देव-मूर्ति को वस्त्र अलंकार से सजाने में लगे हुए थे। मूर्ति सजाई गई। उसे रथ में बिठाने जा रहे थे कि मूर्ति स्वयं चलने लगी। भक्तों के आनन्द का पार न रहा। वे समझे कि देव स्वयं रथ पर चढ़ने जा रहे हैं। हर्ष से नारे लगाते सब मूर्ति के पीछे चलने लगे। मूर्ति उसी उद्यान में पहुँची, जहाँ प्रभ महावीर ध्यानस्थ थे। मर्ति प्रभ महावीर के चरणों में गिर पडी। लोगों ने हर्षनाद किया। उन्होंने प्रभु महावीर को देवाधिदेव मानकर पूजा-भक्ति की। प्रभु महावीर की महिमा का गुणगान सारे गाँव में फैलाया।
श्रावस्ती से कौशाम्बी, वाराणसी, राजगृह, मिथिला आदि नगरों में घूमते हुए प्रभु महावीर चातुर्मास को सम्पन्न करने के लिए वैशाली नगरी पधारे।
यों वैशाली प्रभु का ननिहाल था, पर साधनाकाल में वह कभी भी किसी परिजन से नहीं मिले। वैशाली के बाहर कामवन नाम का उद्यान था। वहाँ इसी नाम का मन्दिर था।
आवश्यक चूर्णिकार ने यह चातुर्मास मिथिला का लिखा है। पर अधिकांशतः प्राचीन व आधुनिक इतिहासकार यह चातुर्मास वैशाली का ही मानते हैं। आचार्य देवेन्द्र मुनि जी भी चूर्णिकार के मत से सहमत नहीं हैं।
आचार्य देवेन्द्र मुनि ने समरोद्यान के बाहर बलदेव का मन्दिर लिखा है।७६ जीर्ण सेट व पूरण सेठ
वैशाली नगरी भारत की प्राचीनतम नगरियों में से एक है। इसका वर्णन महर्षि वाल्मीकिकृत रामायण में भी आया है। प्रभु महावीर के समय तो यह ४,४०४ गण राजाओं की राजधानी थी। इन सबका अध्यक्ष श्रमणोपासक चेटक था, जो महान् शूरवीर था। महात्मा बुद्ध ने वैशाली को धरती का स्वर्ग और वैशाली निवासियों को देवता कहा है। वैशाली
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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